सुखमनी साहिब – Sukhmani Sahib Path in Hindi
गउड़ी सुखमनी मः ५ ॥
सलोकु ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
आदि गुरए नमह ॥ जुगादि गुरए नमह ॥ सतिगुरए नमह ॥ स्री गुरदेवए नमह ॥१॥
असटपदी ॥
सिमरउ सिमरि सिमरि सुखु पावउ ॥ कलि कलेस तन माहि मिटावउ ॥ सिमरउ जासु बिसु्मभर एकै ॥ नामु जपत अगनत अनेकै ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुधाख्यर ॥ कीने राम नाम इक आख्यर ॥ किनका एक जिसु जीअ बसावै ॥ ता की महिमा गनी न आवै ॥ कांखी एकै दरस तुहारो ॥ नानक उन संगि मोहि उधारो ॥१॥
सुखमनी सुख अम्रित प्रभ नामु ॥ भगत जना कै मनि बिस्राम ॥ रहाउ ॥ प्रभ कै सिमरनि गरभि न बसै ॥ प्रभ कै सिमरनि दूखु जमु नसै ॥ प्रभ कै सिमरनि कालु परहरै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुसमनु टरै ॥ प्रभ सिमरत कछु बिघनु न लागै ॥ प्रभ कै सिमरनि अनदिनु जागै ॥ प्रभ कै सिमरनि भउ न बिआपै ॥ प्रभ कै सिमरनि दुखु न संतापै ॥ प्रभ का सिमरनु साध कै संगि ॥ सरब निधान नानक हरि रंगि ॥२॥
प्रभ कै सिमरनि रिधि सिधि नउ निधि ॥ प्रभ कै सिमरनि गिआनु धिआनु ततु बुधि ॥ प्रभ कै सिमरनि जप तप पूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि बिनसै दूजा ॥ प्रभ कै सिमरनि तीरथ इसनानी ॥ प्रभ कै सिमरनि दरगह मानी ॥ प्रभ कै सिमरनि होइ सु भला ॥ प्रभ कै सिमरनि सुफल फला ॥ से सिमरहि जिन आपि सिमराए ॥ नानक ता कै लागउ पाए ॥३॥
प्रभ का सिमरनु सभ ते ऊचा ॥ प्रभ कै सिमरनि उधरे मूचा ॥ प्रभ कै सिमरनि त्रिसना बुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि सभु किछु सुझै ॥ प्रभ कै सिमरनि नाही जम त्रासा ॥ प्रभ कै सिमरनि पूरन आसा ॥ प्रभ कै सिमरनि मन की मलु जाइ ॥ अम्रित नामु रिद माहि समाइ ॥ प्रभ जी बसहि साध की रसना ॥ नानक जन का दासनि दसना ॥४॥
प्रभ कउ सिमरहि से धनवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पतिवंते ॥ प्रभ कउ सिमरहि से जन परवान ॥ प्रभ कउ सिमरहि से पुरख प्रधान ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि बेमुहताजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि सि सरब के राजे ॥ प्रभ कउ सिमरहि से सुखवासी ॥ प्रभ कउ सिमरहि सदा अबिनासी ॥ सिमरन ते लागे जिन आपि दइआला ॥ नानक जन की मंगै रवाला ॥५॥
प्रभ कउ सिमरहि से परउपकारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सद बलिहारी ॥ प्रभ कउ सिमरहि से मुख सुहावे ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन सूखि बिहावै ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन आतमु जीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन निरमल रीता ॥ प्रभ कउ सिमरहि तिन अनद घनेरे ॥ प्रभ कउ सिमरहि बसहि हरि नेरे ॥ संत क्रिपा ते अनदिनु जागि ॥ नानक सिमरनु पूरै भागि ॥६॥
प्रभ कै सिमरनि कारज पूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि कबहु न झूरे ॥ प्रभ कै सिमरनि हरि गुन बानी ॥ प्रभ कै सिमरनि सहजि समानी ॥ प्रभ कै सिमरनि निहचल आसनु ॥ प्रभ कै सिमरनि कमल बिगासनु ॥ प्रभ कै सिमरनि अनहद झुनकार ॥ सुखु प्रभ सिमरन का अंतु न पार ॥ सिमरहि से जन जिन कउ प्रभ मइआ ॥ नानक तिन जन सरनी पइआ ॥७॥
हरि सिमरनु करि भगत प्रगटाए ॥ हरि सिमरनि लगि बेद उपाए ॥ हरि सिमरनि भए सिध जती दाते ॥ हरि सिमरनि नीच चहु कुंट जाते ॥ हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥ सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥ हरि सिमरनि कीओ सगल अकारा ॥ हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥ करि किरपा जिसु आपि बुझाइआ ॥ नानक गुरमुखि हरि सिमरनु तिनि पाइआ ॥८॥१॥
सलोकु ॥
दीन दरद दुख भंजना घटि घटि नाथ अनाथ ॥ सरणि तुम्हारी आइओ नानक के प्रभ साथ ॥१॥
असटपदी ॥
जह मात पिता सुत मीत न भाई ॥ मन ऊहा नामु तेरै संगि सहाई ॥ जह महा भइआन दूत जम दलै ॥ तह केवल नामु संगि तेरै चलै ॥ जह मुसकल होवै अति भारी ॥ हरि को नामु खिन माहि उधारी ॥ अनिक पुनहचरन करत नही तरै ॥ हरि को नामु कोटि पाप परहरै ॥ गुरमुखि नामु जपहु मन मेरे ॥ नानक पावहु सूख घनेरे ॥१॥
सगल स्रिसटि को राजा दुखीआ ॥ हरि का नामु जपत होइ सुखीआ ॥ लाख करोरी बंधु न परै ॥ हरि का नामु जपत निसतरै ॥ अनिक माइआ रंग तिख न बुझावै ॥ हरि का नामु जपत आघावै ॥ जिह मारगि इहु जात इकेला ॥ तह हरि नामु संगि होत सुहेला ॥ ऐसा नामु मन सदा धिआईऐ ॥ नानक गुरमुखि परम गति पाईऐ ॥२॥
छूटत नही कोटि लख बाही ॥ नामु जपत तह पारि पराही ॥ अनिक बिघन जह आइ संघारै ॥ हरि का नामु ततकाल उधारै ॥ अनिक जोनि जनमै मरि जाम ॥ नामु जपत पावै बिस्राम ॥ हउ मैला मलु कबहु न धोवै ॥ हरि का नामु कोटि पाप खोवै ॥ ऐसा नामु जपहु मन रंगि ॥ नानक पाईऐ साध कै संगि ॥३॥
जिह मारग के गने जाहि न कोसा ॥ हरि का नामु ऊहा संगि तोसा ॥ जिह पैडै महा अंध गुबारा ॥ हरि का नामु संगि उजीआरा ॥ जहा पंथि तेरा को न सिञानू ॥ हरि का नामु तह नालि पछानू ॥ जह महा भइआन तपति बहु घाम ॥ तह हरि के नाम की तुम ऊपरि छाम ॥ जहा त्रिखा मन तुझु आकरखै ॥ तह नानक हरि हरि अम्रितु बरखै ॥४॥
भगत जना की बरतनि नामु ॥ संत जना कै मनि बिस्रामु ॥ हरि का नामु दास की ओट ॥ हरि कै नामि उधरे जन कोटि ॥ हरि जसु करत संत दिनु राति ॥ हरि हरि अउखधु साध कमाति ॥ हरि जन कै हरि नामु निधानु ॥ पारब्रहमि जन कीनो दान ॥ मन तन रंगि रते रंग एकै ॥ नानक जन कै बिरति बिबेकै ॥५॥
हरि का नामु जन कउ मुकति जुगति ॥ हरि कै नामि जन कउ त्रिपति भुगति ॥ हरि का नामु जन का रूप रंगु ॥ हरि नामु जपत कब परै न भंगु ॥ हरि का नामु जन की वडिआई ॥ हरि कै नामि जन सोभा पाई ॥ हरि का नामु जन कउ भोग जोग ॥ हरि नामु जपत कछु नाहि बिओगु ॥ जनु राता हरि नाम की सेवा ॥ नानक पूजै हरि हरि देवा ॥६॥
हरि हरि जन कै मालु खजीना ॥ हरि धनु जन कउ आपि प्रभि दीना ॥ हरि हरि जन कै ओट सताणी ॥ हरि प्रतापि जन अवर न जाणी ॥ ओति पोति जन हरि रसि राते ॥ सुंन समाधि नाम रस माते ॥ आठ पहर जनु हरि हरि जपै ॥ हरि का भगतु प्रगट नही छपै ॥ हरि की भगति मुकति बहु करे ॥ नानक जन संगि केते तरे ॥७॥
पारजातु इहु हरि को नाम ॥ कामधेन हरि हरि गुण गाम ॥ सभ ते ऊतम हरि की कथा ॥ नामु सुनत दरद दुख लथा ॥ नाम की महिमा संत रिद वसै ॥ संत प्रतापि दुरतु सभु नसै ॥ संत का संगु वडभागी पाईऐ ॥ संत की सेवा नामु धिआईऐ ॥ नाम तुलि कछु अवरु न होइ ॥ नानक गुरमुखि नामु पावै जनु कोइ ॥८॥२॥
सलोकु ॥
बहु सासत्र बहु सिम्रिती पेखे सरब ढढोलि ॥ पूजसि नाही हरि हरे नानक नाम अमोल ॥१॥
असटपदी ॥
जाप ताप गिआन सभि धिआन ॥ खट सासत्र सिम्रिति वखिआन ॥ जोग अभिआस करम ध्रम किरिआ ॥ सगल तिआगि बन मधे फिरिआ ॥ अनिक प्रकार कीए बहु जतना ॥ पुंन दान होमे बहु रतना ॥ सरीरु कटाइ होमै करि राती ॥ वरत नेम करै बहु भाती ॥ नही तुलि राम नाम बीचार ॥ नानक गुरमुखि नामु जपीऐ इक बार ॥१॥
नउ खंड प्रिथमी फिरै चिरु जीवै ॥ महा उदासु तपीसरु थीवै ॥ अगनि माहि होमत परान ॥ कनिक अस्व हैवर भूमि दान ॥ निउली करम करै बहु आसन ॥ जैन मारग संजम अति साधन ॥ निमख निमख करि सरीरु कटावै ॥ तउ भी हउमै मैलु न जावै ॥ हरि के नाम समसरि कछु नाहि ॥ नानक गुरमुखि नामु जपत गति पाहि ॥२॥
मन कामना तीरथ देह छुटै ॥ गरबु गुमानु न मन ते हुटै ॥ सोच करै दिनसु अरु राति ॥ मन की मैलु न तन ते जाति ॥ इसु देही कउ बहु साधना करै ॥ मन ते कबहू न बिखिआ टरै ॥ जलि धोवै बहु देह अनीति ॥ सुध कहा होइ काची भीति ॥ मन हरि के नाम की महिमा ऊच ॥ नानक नामि उधरे पतित बहु मूच ॥३॥
बहुतु सिआणप जम का भउ बिआपै ॥ अनिक जतन करि त्रिसन ना ध्रापै ॥ भेख अनेक अगनि नही बुझै ॥ कोटि उपाव दरगह नही सिझै ॥ छूटसि नाही ऊभ पइआलि ॥ मोहि बिआपहि माइआ जालि ॥ अवर करतूति सगली जमु डानै ॥ गोविंद भजन बिनु तिलु नही मानै ॥ हरि का नामु जपत दुखु जाइ ॥ नानक बोलै सहजि सुभाइ ॥४॥
चारि पदारथ जे को मागै ॥ साध जना की सेवा लागै ॥ जे को आपुना दूखु मिटावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद गावै ॥ जे को अपुनी सोभा लोरै ॥ साधसंगि इह हउमै छोरै ॥ जे को जनम मरण ते डरै ॥ साध जना की सरनी परै ॥ जिसु जन कउ प्रभ दरस पिआसा ॥ नानक ता कै बलि बलि जासा ॥५॥
सगल पुरख महि पुरखु प्रधानु ॥ साधसंगि जा का मिटै अभिमानु ॥ आपस कउ जो जाणै नीचा ॥ सोऊ गनीऐ सभ ते ऊचा ॥ जा का मनु होइ सगल की रीना ॥ हरि हरि नामु तिनि घटि घटि चीना ॥ मन अपुने ते बुरा मिटाना ॥ पेखै सगल स्रिसटि साजना ॥ सूख दूख जन सम द्रिसटेता ॥ नानक पाप पुंन नही लेपा ॥६॥
निरधन कउ धनु तेरो नाउ ॥ निथावे कउ नाउ तेरा थाउ ॥ निमाने कउ प्रभ तेरो मानु ॥ सगल घटा कउ देवहु दानु ॥ करन करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥ अपनी गति मिति जानहु आपे ॥ आपन संगि आपि प्रभ राते ॥ तुम्हरी उसतति तुम ते होइ ॥ नानक अवरु न जानसि कोइ ॥७॥
सरब धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि को नामु जपि निरमल करमु ॥ सगल क्रिआ महि ऊतम किरिआ ॥ साधसंगि दुरमति मलु हिरिआ ॥ सगल उदम महि उदमु भला ॥ हरि का नामु जपहु जीअ सदा ॥ सगल बानी महि अम्रित बानी ॥ हरि को जसु सुनि रसन बखानी ॥ सगल थान ते ओहु ऊतम थानु ॥ नानक जिह घटि वसै हरि नामु ॥८॥३॥
सलोकु ॥
निरगुनीआर इआनिआ सो प्रभु सदा समालि ॥ जिनि कीआ तिसु चीति रखु नानक निबही नालि ॥१॥
असटपदी ॥
रमईआ के गुन चेति परानी ॥ कवन मूल ते कवन द्रिसटानी ॥ जिनि तूं साजि सवारि सीगारिआ ॥ गरभ अगनि महि जिनहि उबारिआ ॥ बार बिवसथा तुझहि पिआरै दूध ॥ भरि जोबन भोजन सुख सूध ॥ बिरधि भइआ ऊपरि साक सैन ॥ मुखि अपिआउ बैठ कउ दैन ॥ इहु निरगुनु गुनु कछू न बूझै ॥ बखसि लेहु तउ नानक सीझै ॥१॥
जिह प्रसादि धर ऊपरि सुखि बसहि ॥ सुत भ्रात मीत बनिता संगि हसहि ॥ जिह प्रसादि पीवहि सीतल जला ॥ सुखदाई पवनु पावकु अमुला ॥ जिह प्रसादि भोगहि सभि रसा ॥ सगल समग्री संगि साथि बसा ॥ दीने हसत पाव करन नेत्र रसना ॥ तिसहि तिआगि अवर संगि रचना ॥ ऐसे दोख मूड़ अंध बिआपे ॥ नानक काढि लेहु प्रभ आपे ॥२॥
आदि अंति जो राखनहारु ॥ तिस सिउ प्रीति न करै गवारु ॥ जा की सेवा नव निधि पावै ॥ ता सिउ मूड़ा मनु नही लावै ॥ जो ठाकुरु सद सदा हजूरे ॥ ता कउ अंधा जानत दूरे ॥ जा की टहल पावै दरगह मानु ॥ तिसहि बिसारै मुगधु अजानु ॥ सदा सदा इहु भूलनहारु ॥ नानक राखनहारु अपारु ॥३॥
रतनु तिआगि कउडी संगि रचै ॥ साचु छोडि झूठ संगि मचै ॥ जो छडना सु असथिरु करि मानै ॥ जो होवनु सो दूरि परानै ॥ छोडि जाइ तिस का स्रमु करै ॥ संगि सहाई तिसु परहरै ॥ चंदन लेपु उतारै धोइ ॥ गरधब प्रीति भसम संगि होइ ॥ अंध कूप महि पतित बिकराल ॥ नानक काढि लेहु प्रभ दइआल ॥४॥
करतूति पसू की मानस जाति ॥ लोक पचारा करै दिनु राति ॥ बाहरि भेख अंतरि मलु माइआ ॥ छपसि नाहि कछु करै छपाइआ ॥ बाहरि गिआन धिआन इसनान ॥ अंतरि बिआपै लोभु सुआनु ॥ अंतरि अगनि बाहरि तनु सुआह ॥ गलि पाथर कैसे तरै अथाह ॥ जा कै अंतरि बसै प्रभु आपि ॥ नानक ते जन सहजि समाति ॥५॥
सुनि अंधा कैसे मारगु पावै ॥ करु गहि लेहु ओड़ि निबहावै ॥ कहा बुझारति बूझै डोरा ॥ निसि कहीऐ तउ समझै भोरा ॥ कहा बिसनपद गावै गुंग ॥ जतन करै तउ भी सुर भंग ॥ कह पिंगुल परबत पर भवन ॥ नही होत ऊहा उसु गवन ॥ करतार करुणा मै दीनु बेनती करै ॥ नानक तुमरी किरपा तरै ॥६॥
संगि सहाई सु आवै न चीति ॥ जो बैराई ता सिउ प्रीति ॥ बलूआ के ग्रिह भीतरि बसै ॥ अनद केल माइआ रंगि रसै ॥ द्रिड़ु करि मानै मनहि प्रतीति ॥ कालु न आवै मूड़े चीति ॥ बैर बिरोध काम क्रोध मोह ॥ झूठ बिकार महा लोभ ध्रोह ॥ इआहू जुगति बिहाने कई जनम ॥ नानक राखि लेहु आपन करि करम ॥७॥
तू ठाकुरु तुम पहि अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरी रासि ॥ तुम मात पिता हम बारिक तेरे ॥ तुमरी क्रिपा महि सूख घनेरे ॥ कोइ न जानै तुमरा अंतु ॥ ऊचे ते ऊचा भगवंत ॥ सगल समग्री तुमरै सूत्रि धारी ॥ तुम ते होइ सु आगिआकारी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी ॥ नानक दास सदा कुरबानी ॥८॥४॥
सलोकु ॥
देनहारु प्रभ छोडि कै लागहि आन सुआइ ॥ नानक कहू न सीझई बिनु नावै पति जाइ ॥१॥
असटपदी ॥
दस बसतू ले पाछै पावै ॥ एक बसतु कारनि बिखोटि गवावै ॥ एक भी न देइ दस भी हिरि लेइ ॥ तउ मूड़ा कहु कहा करेइ ॥ जिसु ठाकुर सिउ नाही चारा ॥ ता कउ कीजै सद नमसकारा ॥ जा कै मनि लागा प्रभु मीठा ॥ सरब सूख ताहू मनि वूठा ॥ जिसु जन अपना हुकमु मनाइआ ॥ सरब थोक नानक तिनि पाइआ ॥१॥
अगनत साहु अपनी दे रासि ॥ खात पीत बरतै अनद उलासि ॥ अपुनी अमान कछु बहुरि साहु लेइ ॥ अगिआनी मनि रोसु करेइ ॥ अपनी परतीति आप ही खोवै ॥ बहुरि उस का बिस्वासु न होवै ॥ जिस की बसतु तिसु आगै राखै ॥ प्रभ की आगिआ मानै माथै ॥ उस ते चउगुन करै निहालु ॥ नानक साहिबु सदा दइआलु ॥२॥
अनिक भाति माइआ के हेत ॥ सरपर होवत जानु अनेत ॥ बिरख की छाइआ सिउ रंगु लावै ॥ ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै ॥ जो दीसै सो चालनहारु ॥ लपटि रहिओ तह अंध अंधारु ॥ बटाऊ सिउ जो लावै नेह ॥ ता कउ हाथि न आवै केह ॥ मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ॥ करि किरपा नानक आपि लए लाई ॥३॥
मिथिआ तनु धनु कुट्मबु सबाइआ ॥ मिथिआ हउमै ममता माइआ ॥ मिथिआ राज जोबन धन माल ॥ मिथिआ काम क्रोध बिकराल ॥ मिथिआ रथ हसती अस्व बसत्रा ॥ मिथिआ रंग संगि माइआ पेखि हसता ॥ मिथिआ ध्रोह मोह अभिमानु ॥ मिथिआ आपस ऊपरि करत गुमानु ॥ असथिरु भगति साध की सरन ॥ नानक जपि जपि जीवै हरि के चरन ॥४॥
मिथिआ स्रवन पर निंदा सुनहि ॥ मिथिआ हसत पर दरब कउ हिरहि ॥ मिथिआ नेत्र पेखत पर त्रिअ रूपाद ॥ मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद ॥ मिथिआ चरन पर बिकार कउ धावहि ॥ मिथिआ मन पर लोभ लुभावहि ॥ मिथिआ तन नही परउपकारा ॥ मिथिआ बासु लेत बिकारा ॥ बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ॥ सफल देह नानक हरि हरि नाम लए ॥५॥
बिरथी साकत की आरजा ॥ साच बिना कह होवत सूचा ॥ बिरथा नाम बिना तनु अंध ॥ मुखि आवत ता कै दुरगंध ॥ बिनु सिमरन दिनु रैनि ब्रिथा बिहाइ ॥ मेघ बिना जिउ खेती जाइ ॥ गोबिद भजन बिनु ब्रिथे सभ काम ॥ जिउ किरपन के निरारथ दाम ॥ धंनि धंनि ते जन जिह घटि बसिओ हरि नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥६॥
रहत अवर कछु अवर कमावत ॥ मनि नही प्रीति मुखहु गंढ लावत ॥ जाननहार प्रभू परबीन ॥ बाहरि भेख न काहू भीन ॥ अवर उपदेसै आपि न करै ॥ आवत जावत जनमै मरै ॥ जिस कै अंतरि बसै निरंकारु ॥ तिस की सीख तरै संसारु ॥ जो तुम भाने तिन प्रभु जाता ॥ नानक उन जन चरन पराता ॥७॥
करउ बेनती पारब्रहमु सभु जानै ॥ अपना कीआ आपहि मानै ॥ आपहि आप आपि करत निबेरा ॥ किसै दूरि जनावत किसै बुझावत नेरा ॥ उपाव सिआनप सगल ते रहत ॥ सभु कछु जानै आतम की रहत ॥ जिसु भावै तिसु लए लड़ि लाइ ॥ थान थनंतरि रहिआ समाइ ॥ सो सेवकु जिसु किरपा करी ॥ निमख निमख जपि नानक हरी ॥८॥५॥
सलोकु ॥
काम क्रोध अरु लोभ मोह बिनसि जाइ अहमेव ॥ नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरदेव ॥१॥
असटपदी ॥
जिह प्रसादि छतीह अम्रित खाहि ॥ तिसु ठाकुर कउ रखु मन माहि ॥ जिह प्रसादि सुगंधत तनि लावहि ॥ तिस कउ सिमरत परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि बसहि सुख मंदरि ॥ तिसहि धिआइ सदा मन अंदरि ॥ जिह प्रसादि ग्रिह संगि सुख बसना ॥ आठ पहर सिमरहु तिसु रसना ॥ जिह प्रसादि रंग रस भोग ॥ नानक सदा धिआईऐ धिआवन जोग ॥१॥
जिह प्रसादि पाट पट्मबर हढावहि ॥ तिसहि तिआगि कत अवर लुभावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सेज सोईजै ॥ मन आठ पहर ता का जसु गावीजै ॥ जिह प्रसादि तुझु सभु कोऊ मानै ॥ मुखि ता को जसु रसन बखानै ॥ जिह प्रसादि तेरो रहता धरमु ॥ मन सदा धिआइ केवल पारब्रहमु ॥ प्रभ जी जपत दरगह मानु पावहि ॥ नानक पति सेती घरि जावहि ॥२॥
जिह प्रसादि आरोग कंचन देही ॥ लिव लावहु तिसु राम सनेही ॥ जिह प्रसादि तेरा ओला रहत ॥ मन सुखु पावहि हरि हरि जसु कहत ॥ जिह प्रसादि तेरे सगल छिद्र ढाके ॥ मन सरनी परु ठाकुर प्रभ ता कै ॥ जिह प्रसादि तुझु को न पहूचै ॥ मन सासि सासि सिमरहु प्रभ ऊचे ॥ जिह प्रसादि पाई द्रुलभ देह ॥ नानक ता की भगति करेह ॥३॥
जिह प्रसादि आभूखन पहिरीजै ॥ मन तिसु सिमरत किउ आलसु कीजै ॥ जिह प्रसादि अस्व हसति असवारी ॥ मन तिसु प्रभ कउ कबहू न बिसारी ॥ जिह प्रसादि बाग मिलख धना ॥ राखु परोइ प्रभु अपुने मना ॥ जिनि तेरी मन बनत बनाई ॥ ऊठत बैठत सद तिसहि धिआई ॥ तिसहि धिआइ जो एक अलखै ॥ ईहा ऊहा नानक तेरी रखै ॥४॥
जिह प्रसादि करहि पुंन बहु दान ॥ मन आठ पहर करि तिस का धिआन ॥ जिह प्रसादि तू आचार बिउहारी ॥ तिसु प्रभ कउ सासि सासि चितारी ॥ जिह प्रसादि तेरा सुंदर रूपु ॥ सो प्रभु सिमरहु सदा अनूपु ॥ जिह प्रसादि तेरी नीकी जाति ॥ सो प्रभु सिमरि सदा दिन राति ॥ जिह प्रसादि तेरी पति रहै ॥ गुर प्रसादि नानक जसु कहै ॥५॥
जिह प्रसादि सुनहि करन नाद ॥ जिह प्रसादि पेखहि बिसमाद ॥ जिह प्रसादि बोलहि अम्रित रसना ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजे बसना ॥ जिह प्रसादि हसत कर चलहि ॥ जिह प्रसादि स्मपूरन फलहि ॥ जिह प्रसादि परम गति पावहि ॥ जिह प्रसादि सुखि सहजि समावहि ॥ ऐसा प्रभु तिआगि अवर कत लागहु ॥ गुर प्रसादि नानक मनि जागहु ॥६॥
जिह प्रसादि तूं प्रगटु संसारि ॥ तिसु प्रभ कउ मूलि न मनहु बिसारि ॥ जिह प्रसादि तेरा परतापु ॥ रे मन मूड़ तू ता कउ जापु ॥ जिह प्रसादि तेरे कारज पूरे ॥ तिसहि जानु मन सदा हजूरे ॥ जिह प्रसादि तूं पावहि साचु ॥ रे मन मेरे तूं ता सिउ राचु ॥ जिह प्रसादि सभ की गति होइ ॥ नानक जापु जपै जपु सोइ ॥७॥
आपि जपाए जपै सो नाउ ॥ आपि गावाए सु हरि गुन गाउ ॥ प्रभ किरपा ते होइ प्रगासु ॥ प्रभू दइआ ते कमल बिगासु ॥ प्रभ सुप्रसंन बसै मनि सोइ ॥ प्रभ दइआ ते मति ऊतम होइ ॥ सरब निधान प्रभ तेरी मइआ ॥ आपहु कछू न किनहू लइआ ॥ जितु जितु लावहु तितु लगहि हरि नाथ ॥ नानक इन कै कछू न हाथ ॥८॥६॥
सलोकु ॥
अगम अगाधि पारब्रहमु सोइ ॥ जो जो कहै सु मुकता होइ ॥ सुनि मीता नानकु बिनवंता ॥ साध जना की अचरज कथा ॥१॥
असटपदी ॥
साध कै संगि मुख ऊजल होत ॥ साधसंगि मलु सगली खोत ॥ साध कै संगि मिटै अभिमानु ॥ साध कै संगि प्रगटै सुगिआनु ॥ साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा ॥ साधसंगि सभु होत निबेरा ॥ साध कै संगि पाए नाम रतनु ॥ साध कै संगि एक ऊपरि जतनु ॥ साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी ॥ नानक साध की सोभा प्रभ माहि समानी ॥१॥
साध कै संगि अगोचरु मिलै ॥ साध कै संगि सदा परफुलै ॥ साध कै संगि आवहि बसि पंचा ॥ साधसंगि अम्रित रसु भुंचा ॥ साधसंगि होइ सभ की रेन ॥ साध कै संगि मनोहर बैन ॥ साध कै संगि न कतहूं धावै ॥ साधसंगि असथिति मनु पावै ॥ साध कै संगि माइआ ते भिंन ॥ साधसंगि नानक प्रभ सुप्रसंन ॥२॥
साधसंगि दुसमन सभि मीत ॥ साधू कै संगि महा पुनीत ॥ साधसंगि किस सिउ नही बैरु ॥ साध कै संगि न बीगा पैरु ॥ साध कै संगि नाही को मंदा ॥ साधसंगि जाने परमानंदा ॥ साध कै संगि नाही हउ तापु ॥ साध कै संगि तजै सभु आपु ॥ आपे जानै साध बडाई ॥ नानक साध प्रभू बनि आई ॥३॥
साध कै संगि न कबहू धावै ॥ साध कै संगि सदा सुखु पावै ॥ साधसंगि बसतु अगोचर लहै ॥ साधू कै संगि अजरु सहै ॥ साध कै संगि बसै थानि ऊचै ॥ साधू कै संगि महलि पहूचै ॥ साध कै संगि द्रिड़ै सभि धरम ॥ साध कै संगि केवल पारब्रहम ॥ साध कै संगि पाए नाम निधान ॥ नानक साधू कै कुरबान ॥४॥
साध कै संगि सभ कुल उधारै ॥ साधसंगि साजन मीत कुट्मब निसतारै ॥ साधू कै संगि सो धनु पावै ॥ जिसु धन ते सभु को वरसावै ॥ साधसंगि धरम राइ करे सेवा ॥ साध कै संगि सोभा सुरदेवा ॥ साधू कै संगि पाप पलाइन ॥ साधसंगि अम्रित गुन गाइन ॥ साध कै संगि स्रब थान गमि ॥ नानक साध कै संगि सफल जनम ॥५॥
साध कै संगि नही कछु घाल ॥ दरसनु भेटत होत निहाल ॥ साध कै संगि कलूखत हरै ॥ साध कै संगि नरक परहरै ॥ साध कै संगि ईहा ऊहा सुहेला ॥ साधसंगि बिछुरत हरि मेला ॥ जो इछै सोई फलु पावै ॥ साध कै संगि न बिरथा जावै ॥ पारब्रहमु साध रिद बसै ॥ नानक उधरै साध सुनि रसै ॥६॥
साध कै संगि सुनउ हरि नाउ ॥ साधसंगि हरि के गुन गाउ ॥ साध कै संगि न मन ते बिसरै ॥ साधसंगि सरपर निसतरै ॥ साध कै संगि लगै प्रभु मीठा ॥ साधू कै संगि घटि घटि डीठा ॥ साधसंगि भए आगिआकारी ॥ साधसंगि गति भई हमारी ॥ साध कै संगि मिटे सभि रोग ॥ नानक साध भेटे संजोग ॥७॥
साध की महिमा बेद न जानहि ॥ जेता सुनहि तेता बखिआनहि ॥ साध की उपमा तिहु गुण ते दूरि ॥ साध की उपमा रही भरपूरि ॥ साध की सोभा का नाही अंत ॥ साध की सोभा सदा बेअंत ॥ साध की सोभा ऊच ते ऊची ॥ साध की सोभा मूच ते मूची ॥ साध की सोभा साध बनि आई ॥ नानक साध प्रभ भेदु न भाई ॥८॥७॥
सलोकु ॥
मनि साचा मुखि साचा सोइ ॥ अवरु न पेखै एकसु बिनु कोइ ॥ नानक इह लछण ब्रहम गिआनी होइ ॥१॥
असटपदी ॥
ब्रहम गिआनी सदा निरलेप ॥ जैसे जल महि कमल अलेप ॥ ब्रहम गिआनी सदा निरदोख ॥ जैसे सूरु सरब कउ सोख ॥ ब्रहम गिआनी कै द्रिसटि समानि ॥ जैसे राज रंक कउ लागै तुलि पवान ॥ ब्रहम गिआनी कै धीरजु एक ॥ जिउ बसुधा कोऊ खोदै कोऊ चंदन लेप ॥ ब्रहम गिआनी का इहै गुनाउ ॥ नानक जिउ पावक का सहज सुभाउ ॥१॥
ब्रहम गिआनी निरमल ते निरमला ॥ जैसे मैलु न लागै जला ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि होइ प्रगासु ॥ जैसे धर ऊपरि आकासु ॥ ब्रहम गिआनी कै मित्र सत्रु समानि ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही अभिमान ॥ ब्रहम गिआनी ऊच ते ऊचा ॥ मनि अपनै है सभ ते नीचा ॥ ब्रहम गिआनी से जन भए ॥ नानक जिन प्रभु आपि करेइ ॥२॥
ब्रहम गिआनी सगल की रीना ॥ आतम रसु ब्रहम गिआनी चीना ॥ ब्रहम गिआनी की सभ ऊपरि मइआ ॥ ब्रहम गिआनी ते कछु बुरा न भइआ ॥ ब्रहम गिआनी सदा समदरसी ॥ ब्रहम गिआनी की द्रिसटि अम्रितु बरसी ॥ ब्रहम गिआनी बंधन ते मुकता ॥ ब्रहम गिआनी की निरमल जुगता ॥ ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन ॥ नानक ब्रहम गिआनी का ब्रहम धिआनु ॥३॥
ब्रहम गिआनी एक ऊपरि आस ॥ ब्रहम गिआनी का नही बिनास ॥ ब्रहम गिआनी कै गरीबी समाहा ॥ ब्रहम गिआनी परउपकार उमाहा ॥ ब्रहम गिआनी कै नाही धंधा ॥ ब्रहम गिआनी ले धावतु बंधा ॥ ब्रहम गिआनी कै होइ सु भला ॥ ब्रहम गिआनी सुफल फला ॥ ब्रहम गिआनी संगि सगल उधारु ॥ नानक ब्रहम गिआनी जपै सगल संसारु ॥४॥
ब्रहम गिआनी कै एकै रंग ॥ ब्रहम गिआनी कै बसै प्रभु संग ॥ ब्रहम गिआनी कै नामु आधारु ॥ ब्रहम गिआनी कै नामु परवारु ॥ ब्रहम गिआनी सदा सद जागत ॥ ब्रहम गिआनी अह्मबुधि तिआगत ॥ ब्रहम गिआनी कै मनि परमानंद ॥ ब्रहम गिआनी कै घरि सदा अनंद ॥ ब्रहम गिआनी सुख सहज निवास ॥ नानक ब्रहम गिआनी का नही बिनास ॥५॥
ब्रहम गिआनी ब्रहम का बेता ॥ ब्रहम गिआनी एक संगि हेता ॥ ब्रहम गिआनी कै होइ अचिंत ॥ ब्रहम गिआनी का निरमल मंत ॥ ब्रहम गिआनी जिसु करै प्रभु आपि ॥ ब्रहम गिआनी का बड परताप ॥ ब्रहम गिआनी का दरसु बडभागी पाईऐ ॥ ब्रहम गिआनी कउ बलि बलि जाईऐ ॥ ब्रहम गिआनी कउ खोजहि महेसुर ॥ नानक ब्रहम गिआनी आपि परमेसुर ॥६॥
ब्रहम गिआनी की कीमति नाहि ॥ ब्रहम गिआनी कै सगल मन माहि ॥ ब्रहम गिआनी का कउन जानै भेदु ॥ ब्रहम गिआनी कउ सदा अदेसु ॥ ब्रहम गिआनी का कथिआ न जाइ अधाख्यरु ॥ ब्रहम गिआनी सरब का ठाकुरु ॥ ब्रहम गिआनी की मिति कउनु बखानै ॥ ब्रहम गिआनी की गति ब्रहम गिआनी जानै ॥ ब्रहम गिआनी का अंतु न पारु ॥ नानक ब्रहम गिआनी कउ सदा नमसकारु ॥७॥
ब्रहम गिआनी सभ स्रिसटि का करता ॥ ब्रहम गिआनी सद जीवै नही मरता ॥ ब्रहम गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता ॥ ब्रहम गिआनी पूरन पुरखु बिधाता ॥ ब्रहम गिआनी अनाथ का नाथु ॥ ब्रहम गिआनी का सभ ऊपरि हाथु ॥ ब्रहम गिआनी का सगल अकारु ॥ ब्रहम गिआनी आपि निरंकारु ॥ ब्रहम गिआनी की सोभा ब्रहम गिआनी बनी ॥ नानक ब्रहम गिआनी सरब का धनी ॥८॥८॥
सलोकु ॥
उरि धारै जो अंतरि नामु ॥ सरब मै पेखै भगवानु ॥ निमख निमख ठाकुर नमसकारै ॥ नानक ओहु अपरसु सगल निसतारै ॥१॥
असटपदी ॥
मिथिआ नाही रसना परस ॥ मन महि प्रीति निरंजन दरस ॥ पर त्रिअ रूपु न पेखै नेत्र ॥ साध की टहल संतसंगि हेत ॥ करन न सुनै काहू की निंदा ॥ सभ ते जानै आपस कउ मंदा ॥ गुर प्रसादि बिखिआ परहरै ॥ मन की बासना मन ते टरै ॥ इंद्री जित पंच दोख ते रहत ॥ नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ॥१॥
बैसनो सो जिसु ऊपरि सुप्रसंन ॥ बिसन की माइआ ते होइ भिंन ॥ करम करत होवै निहकरम ॥ तिसु बैसनो का निरमल धरम ॥ काहू फल की इछा नही बाछै ॥ केवल भगति कीरतन संगि राचै ॥ मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ आपि द्रिड़ै अवरह नामु जपावै ॥ नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ॥२॥
भगउती भगवंत भगति का रंगु ॥ सगल तिआगै दुसट का संगु ॥ मन ते बिनसै सगला भरमु ॥ करि पूजै सगल पारब्रहमु ॥ साधसंगि पापा मलु खोवै ॥ तिसु भगउती की मति ऊतम होवै ॥ भगवंत की टहल करै नित नीति ॥ मनु तनु अरपै बिसन परीति ॥ हरि के चरन हिरदै बसावै ॥ नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ॥३॥
सो पंडितु जो मनु परबोधै ॥ राम नामु आतम महि सोधै ॥ राम नाम सारु रसु पीवै ॥ उसु पंडित कै उपदेसि जगु जीवै ॥ हरि की कथा हिरदै बसावै ॥ सो पंडितु फिरि जोनि न आवै ॥ बेद पुरान सिम्रिति बूझै मूल ॥ सूखम महि जानै असथूलु ॥ चहु वरना कउ दे उपदेसु ॥ नानक उसु पंडित कउ सदा अदेसु ॥४॥
बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥ चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥ जो जो जपै तिस की गति होइ ॥ साधसंगि पावै जनु कोइ ॥ करि किरपा अंतरि उर धारै ॥ पसु प्रेत मुघद पाथर कउ तारै ॥ सरब रोग का अउखदु नामु ॥ कलिआण रूप मंगल गुण गाम ॥ काहू जुगति कितै न पाईऐ धरमि ॥ नानक तिसु मिलै जिसु लिखिआ धुरि करमि ॥५॥
जिस कै मनि पारब्रहम का निवासु ॥ तिस का नामु सति रामदासु ॥ आतम रामु तिसु नदरी आइआ ॥ दास दसंतण भाइ तिनि पाइआ ॥ सदा निकटि निकटि हरि जानु ॥ सो दासु दरगह परवानु ॥ अपुने दास कउ आपि किरपा करै ॥ तिसु दास कउ सभ सोझी परै ॥ सगल संगि आतम उदासु ॥ ऐसी जुगति नानक रामदासु ॥६॥
प्रभ की आगिआ आतम हितावै ॥ जीवन मुकति सोऊ कहावै ॥ तैसा हरखु तैसा उसु सोगु ॥ सदा अनंदु तह नही बिओगु ॥ तैसा सुवरनु तैसी उसु माटी ॥ तैसा अम्रितु तैसी बिखु खाटी ॥ तैसा मानु तैसा अभिमानु ॥ तैसा रंकु तैसा राजानु ॥ जो वरताए साई जुगति ॥ नानक ओहु पुरखु कहीऐ जीवन मुकति ॥७॥
पारब्रहम के सगले ठाउ ॥ जितु जितु घरि राखै तैसा तिन नाउ ॥ आपे करन करावन जोगु ॥ प्रभ भावै सोई फुनि होगु ॥ पसरिओ आपि होइ अनत तरंग ॥ लखे न जाहि पारब्रहम के रंग ॥ जैसी मति देइ तैसा परगास ॥ पारब्रहमु करता अबिनास ॥ सदा सदा सदा दइआल ॥ सिमरि सिमरि नानक भए निहाल ॥८॥९॥
सलोकु ॥
उसतति करहि अनेक जन अंतु न पारावार ॥ नानक रचना प्रभि रची बहु बिधि अनिक प्रकार ॥१॥
असटपदी ॥
कई कोटि होए पूजारी ॥ कई कोटि आचार बिउहारी ॥ कई कोटि भए तीरथ वासी ॥ कई कोटि बन भ्रमहि उदासी ॥ कई कोटि बेद के स्रोते ॥ कई कोटि तपीसुर होते ॥ कई कोटि आतम धिआनु धारहि ॥ कई कोटि कबि काबि बीचारहि ॥ कई कोटि नवतन नाम धिआवहि ॥ नानक करते का अंतु न पावहि ॥१॥
कई कोटि भए अभिमानी ॥ कई कोटि अंध अगिआनी ॥ कई कोटि किरपन कठोर ॥ कई कोटि अभिग आतम निकोर ॥ कई कोटि पर दरब कउ हिरहि ॥ कई कोटि पर दूखना करहि ॥ कई कोटि माइआ स्रम माहि ॥ कई कोटि परदेस भ्रमाहि ॥ जितु जितु लावहु तितु तितु लगना ॥ नानक करते की जानै करता रचना ॥२॥
कई कोटि सिध जती जोगी ॥ कई कोटि राजे रस भोगी ॥ कई कोटि पंखी सरप उपाए ॥ कई कोटि पाथर बिरख निपजाए ॥ कई कोटि पवण पाणी बैसंतर ॥ कई कोटि देस भू मंडल ॥ कई कोटि ससीअर सूर नख्यत्र ॥ कई कोटि देव दानव इंद्र सिरि छत्र ॥ सगल समग्री अपनै सूति धारै ॥ नानक जिसु जिसु भावै तिसु तिसु निसतारै ॥३॥
कई कोटि राजस तामस सातक ॥ कई कोटि बेद पुरान सिम्रिति अरु सासत ॥ कई कोटि कीए रतन समुद ॥ कई कोटि नाना प्रकार जंत ॥ कई कोटि कीए चिर जीवे ॥ कई कोटि गिरी मेर सुवरन थीवे ॥ कई कोटि जख्य किंनर पिसाच ॥ कई कोटि भूत प्रेत सूकर म्रिगाच ॥ सभ ते नेरै सभहू ते दूरि ॥ नानक आपि अलिपतु रहिआ भरपूरि ॥४॥
कई कोटि पाताल के वासी ॥ कई कोटि नरक सुरग निवासी ॥ कई कोटि जनमहि जीवहि मरहि ॥ कई कोटि बहु जोनी फिरहि ॥ कई कोटि बैठत ही खाहि ॥ कई कोटि घालहि थकि पाहि ॥ कई कोटि कीए धनवंत ॥ कई कोटि माइआ महि चिंत ॥ जह जह भाणा तह तह राखे ॥ नानक सभु किछु प्रभ कै हाथे ॥५॥
कई कोटि भए बैरागी ॥ राम नाम संगि तिनि लिव लागी ॥ कई कोटि प्रभ कउ खोजंते ॥ आतम महि पारब्रहमु लहंते ॥ कई कोटि दरसन प्रभ पिआस ॥ तिन कउ मिलिओ प्रभु अबिनास ॥ कई कोटि मागहि सतसंगु ॥ पारब्रहम तिन लागा रंगु ॥ जिन कउ होए आपि सुप्रसंन ॥ नानक ते जन सदा धनि धंनि ॥६॥
कई कोटि खाणी अरु खंड ॥ कई कोटि अकास ब्रहमंड ॥ कई कोटि होए अवतार ॥ कई जुगति कीनो बिसथार ॥ कई बार पसरिओ पासार ॥ सदा सदा इकु एकंकार ॥ कई कोटि कीने बहु भाति ॥ प्रभ ते होए प्रभ माहि समाति ॥ ता का अंतु न जानै कोइ ॥ आपे आपि नानक प्रभु सोइ ॥७॥
कई कोटि पारब्रहम के दास ॥ तिन होवत आतम परगास ॥ कई कोटि तत के बेते ॥ सदा निहारहि एको नेत्रे ॥ कई कोटि नाम रसु पीवहि ॥ अमर भए सद सद ही जीवहि ॥ कई कोटि नाम गुन गावहि ॥ आतम रसि सुखि सहजि समावहि ॥ अपुने जन कउ सासि सासि समारे ॥ नानक ओइ परमेसुर के पिआरे ॥८॥१०॥
सलोकु ॥
करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै जलि थलि महीअलि सोइ ॥१॥
असटपदी ॥
करन करावन करनै जोगु ॥ जो तिसु भावै सोई होगु ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ अंतु नही किछु पारावारा ॥ हुकमे धारि अधर रहावै ॥ हुकमे उपजै हुकमि समावै ॥ हुकमे ऊच नीच बिउहार ॥ हुकमे अनिक रंग परकार ॥ करि करि देखै अपनी वडिआई ॥ नानक सभ महि रहिआ समाई ॥१॥
प्रभ भावै मानुख गति पावै ॥ प्रभ भावै ता पाथर तरावै ॥ प्रभ भावै बिनु सास ते राखै ॥ प्रभ भावै ता हरि गुण भाखै ॥ प्रभ भावै ता पतित उधारै ॥ आपि करै आपन बीचारै ॥ दुहा सिरिआ का आपि सुआमी ॥ खेलै बिगसै अंतरजामी ॥ जो भावै सो कार करावै ॥ नानक द्रिसटी अवरु न आवै ॥२॥
कहु मानुख ते किआ होइ आवै ॥ जो तिसु भावै सोई करावै ॥ इस कै हाथि होइ ता सभु किछु लेइ ॥ जो तिसु भावै सोई करेइ ॥ अनजानत बिखिआ महि रचै ॥ जे जानत आपन आप बचै ॥ भरमे भूला दह दिसि धावै ॥ निमख माहि चारि कुंट फिरि आवै ॥ करि किरपा जिसु अपनी भगति देइ ॥ नानक ते जन नामि मिलेइ ॥३॥
खिन महि नीच कीट कउ राज ॥ पारब्रहम गरीब निवाज ॥ जा का द्रिसटि कछू न आवै ॥ तिसु ततकाल दह दिस प्रगटावै ॥ जा कउ अपुनी करै बखसीस ॥ ता का लेखा न गनै जगदीस ॥ जीउ पिंडु सभ तिस की रासि ॥ घटि घटि पूरन ब्रहम प्रगास ॥ अपनी बणत आपि बनाई ॥ नानक जीवै देखि बडाई ॥४॥
इस का बलु नाही इसु हाथ ॥ करन करावन सरब को नाथ ॥ आगिआकारी बपुरा जीउ ॥ जो तिसु भावै सोई फुनि थीउ ॥ कबहू ऊच नीच महि बसै ॥ कबहू सोग हरख रंगि हसै ॥ कबहू निंद चिंद बिउहार ॥ कबहू ऊभ अकास पइआल ॥ कबहू बेता ब्रहम बीचार ॥ नानक आपि मिलावणहार ॥५॥
कबहू निरति करै बहु भाति ॥ कबहू सोइ रहै दिनु राति ॥ कबहू महा क्रोध बिकराल ॥ कबहूं सरब की होत रवाल ॥ कबहू होइ बहै बड राजा ॥ कबहु भेखारी नीच का साजा ॥ कबहू अपकीरति महि आवै ॥ कबहू भला भला कहावै ॥ जिउ प्रभु राखै तिव ही रहै ॥ गुर प्रसादि नानक सचु कहै ॥६॥
कबहू होइ पंडितु करे बख्यानु ॥ कबहू मोनिधारी लावै धिआनु ॥ कबहू तट तीरथ इसनान ॥ कबहू सिध साधिक मुखि गिआन ॥ कबहू कीट हसति पतंग होइ जीआ ॥ अनिक जोनि भरमै भरमीआ ॥ नाना रूप जिउ स्वागी दिखावै ॥ जिउ प्रभ भावै तिवै नचावै ॥ जो तिसु भावै सोई होइ ॥ नानक दूजा अवरु न कोइ ॥७॥
कबहू साधसंगति इहु पावै ॥ उसु असथान ते बहुरि न आवै ॥ अंतरि होइ गिआन परगासु ॥ उसु असथान का नही बिनासु ॥ मन तन नामि रते इक रंगि ॥ सदा बसहि पारब्रहम कै संगि ॥ जिउ जल महि जलु आइ खटाना ॥ तिउ जोती संगि जोति समाना ॥ मिटि गए गवन पाए बिस्राम ॥ नानक प्रभ कै सद कुरबान ॥८॥११॥
सलोकु ॥
सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले ॥ बडे बडे अहंकारीआ नानक गरबि गले ॥१॥
असटपदी ॥
जिस कै अंतरि राज अभिमानु ॥ सो नरकपाती होवत सुआनु ॥ जो जानै मै जोबनवंतु ॥ सो होवत बिसटा का जंतु ॥ आपस कउ करमवंतु कहावै ॥ जनमि मरै बहु जोनि भ्रमावै ॥ धन भूमि का जो करै गुमानु ॥ सो मूरखु अंधा अगिआनु ॥ करि किरपा जिस कै हिरदै गरीबी बसावै ॥ नानक ईहा मुकतु आगै सुखु पावै ॥१॥
धनवंता होइ करि गरबावै ॥ त्रिण समानि कछु संगि न जावै ॥ बहु लसकर मानुख ऊपरि करे आस ॥ पल भीतरि ता का होइ बिनास ॥ सभ ते आप जानै बलवंतु ॥ खिन महि होइ जाइ भसमंतु ॥ किसै न बदै आपि अहंकारी ॥ धरम राइ तिसु करे खुआरी ॥ गुर प्रसादि जा का मिटै अभिमानु ॥ सो जनु नानक दरगह परवानु ॥२॥
कोटि करम करै हउ धारे ॥ स्रमु पावै सगले बिरथारे ॥ अनिक तपसिआ करे अहंकार ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अवतार ॥ अनिक जतन करि आतम नही द्रवै ॥ हरि दरगह कहु कैसे गवै ॥ आपस कउ जो भला कहावै ॥ तिसहि भलाई निकटि न आवै ॥ सरब की रेन जा का मनु होइ ॥ कहु नानक ता की निरमल सोइ ॥३॥
जब लगु जानै मुझ ते कछु होइ ॥ तब इस कउ सुखु नाही कोइ ॥ जब इह जानै मै किछु करता ॥ तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥ जब धारै कोऊ बैरी मीतु ॥ तब लगु निहचलु नाही चीतु ॥ जब लगु मोह मगन संगि माइ ॥ तब लगु धरम राइ देइ सजाइ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन तूटै ॥ गुर प्रसादि नानक हउ छूटै ॥४॥
सहस खटे लख कउ उठि धावै ॥ त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै ॥ अनिक भोग बिखिआ के करै ॥ नह त्रिपतावै खपि खपि मरै ॥ बिना संतोख नही कोऊ राजै ॥ सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै ॥ नाम रंगि सरब सुखु होइ ॥ बडभागी किसै परापति होइ ॥ करन करावन आपे आपि ॥ सदा सदा नानक हरि जापि ॥५॥
करन करावन करनैहारु ॥ इस कै हाथि कहा बीचारु ॥ जैसी द्रिसटि करे तैसा होइ ॥ आपे आपि आपि प्रभु सोइ ॥ जो किछु कीनो सु अपनै रंगि ॥ सभ ते दूरि सभहू कै संगि ॥ बूझै देखै करै बिबेक ॥ आपहि एक आपहि अनेक ॥ मरै न बिनसै आवै न जाइ ॥ नानक सद ही रहिआ समाइ ॥६॥
आपि उपदेसै समझै आपि ॥ आपे रचिआ सभ कै साथि ॥ आपि कीनो आपन बिसथारु ॥ सभु कछु उस का ओहु करनैहारु ॥ उस ते भिंन कहहु किछु होइ ॥ थान थनंतरि एकै सोइ ॥ अपुने चलित आपि करणैहार ॥ कउतक करै रंग आपार ॥ मन महि आपि मन अपुने माहि ॥ नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥
सति सति सति प्रभु सुआमी ॥ गुर परसादि किनै वखिआनी ॥ सचु सचु सचु सभु कीना ॥ कोटि मधे किनै बिरलै चीना ॥ भला भला भला तेरा रूप ॥ अति सुंदर अपार अनूप ॥ निरमल निरमल निरमल तेरी बाणी ॥ घटि घटि सुनी स्रवन बख्याणी ॥ पवित्र पवित्र पवित्र पुनीत ॥ नामु जपै नानक मनि प्रीति ॥८॥१२॥
सलोकु ॥
संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार ॥ संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ॥१॥
असटपदी ॥
संत कै दूखनि आरजा घटै ॥ संत कै दूखनि जम ते नही छुटै ॥ संत कै दूखनि सुखु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नरक महि पाइ ॥ संत कै दूखनि मति होइ मलीन ॥ संत कै दूखनि सोभा ते हीन ॥ संत के हते कउ रखै न कोइ ॥ संत कै दूखनि थान भ्रसटु होइ ॥ संत क्रिपाल क्रिपा जे करै ॥ नानक संतसंगि निंदकु भी तरै ॥१॥
संत के दूखन ते मुखु भवै ॥ संतन कै दूखनि काग जिउ लवै ॥ संतन कै दूखनि सरप जोनि पाइ ॥ संत कै दूखनि त्रिगद जोनि किरमाइ ॥ संतन कै दूखनि त्रिसना महि जलै ॥ संत कै दूखनि सभु को छलै ॥ संत कै दूखनि तेजु सभु जाइ ॥ संत कै दूखनि नीचु नीचाइ ॥ संत दोखी का थाउ को नाहि ॥ नानक संत भावै ता ओइ भी गति पाहि ॥२॥
संत का निंदकु महा अतताई ॥ संत का निंदकु खिनु टिकनु न पाई ॥ संत का निंदकु महा हतिआरा ॥ संत का निंदकु परमेसुरि मारा ॥ संत का निंदकु राज ते हीनु ॥ संत का निंदकु दुखीआ अरु दीनु ॥ संत के निंदक कउ सरब रोग ॥ संत के निंदक कउ सदा बिजोग ॥ संत की निंदा दोख महि दोखु ॥ नानक संत भावै ता उस का भी होइ मोखु ॥३॥
संत का दोखी सदा अपवितु ॥ संत का दोखी किसै का नही मितु ॥ संत के दोखी कउ डानु लागै ॥ संत के दोखी कउ सभ तिआगै ॥ संत का दोखी महा अहंकारी ॥ संत का दोखी सदा बिकारी ॥ संत का दोखी जनमै मरै ॥ संत की दूखना सुख ते टरै ॥ संत के दोखी कउ नाही ठाउ ॥ नानक संत भावै ता लए मिलाइ ॥४॥
संत का दोखी अध बीच ते टूटै ॥ संत का दोखी कितै काजि न पहूचै ॥ संत के दोखी कउ उदिआन भ्रमाईऐ ॥ संत का दोखी उझड़ि पाईऐ ॥ संत का दोखी अंतर ते थोथा ॥ जिउ सास बिना मिरतक की लोथा ॥ संत के दोखी की जड़ किछु नाहि ॥ आपन बीजि आपे ही खाहि ॥ संत के दोखी कउ अवरु न राखनहारु ॥ नानक संत भावै ता लए उबारि ॥५॥
संत का दोखी इउ बिललाइ ॥ जिउ जल बिहून मछुली तड़फड़ाइ ॥ संत का दोखी भूखा नही राजै ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै ॥ संत का दोखी छुटै इकेला ॥ जिउ बूआड़ु तिलु खेत माहि दुहेला ॥ संत का दोखी धरम ते रहत ॥ संत का दोखी सद मिथिआ कहत ॥ किरतु निंदक का धुरि ही पइआ ॥ नानक जो तिसु भावै सोई थिआ ॥६॥
संत का दोखी बिगड़ रूपु होइ जाइ ॥ संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ ॥ संत का दोखी सदा सहकाईऐ ॥ संत का दोखी न मरै न जीवाईऐ ॥ संत के दोखी की पुजै न आसा ॥ संत का दोखी उठि चलै निरासा ॥ संत कै दोखि न त्रिसटै कोइ ॥ जैसा भावै तैसा कोई होइ ॥ पइआ किरतु न मेटै कोइ ॥ नानक जानै सचा सोइ ॥७॥
सभ घट तिस के ओहु करनैहारु ॥ सदा सदा तिस कउ नमसकारु ॥ प्रभ की उसतति करहु दिनु राति ॥ तिसहि धिआवहु सासि गिरासि ॥ सभु कछु वरतै तिस का कीआ ॥ जैसा करे तैसा को थीआ ॥ अपना खेलु आपि करनैहारु ॥ दूसर कउनु कहै बीचारु ॥ जिस नो क्रिपा करै तिसु आपन नामु देइ ॥ बडभागी नानक जन सेइ ॥८॥१३॥
सलोकु ॥
तजहु सिआनप सुरि जनहु सिमरहु हरि हरि राइ ॥ एक आस हरि मनि रखहु नानक दूखु भरमु भउ जाइ ॥१॥
असटपदी ॥
मानुख की टेक ब्रिथी सभ जानु ॥ देवन कउ एकै भगवानु ॥ जिस कै दीऐ रहै अघाइ ॥ बहुरि न त्रिसना लागै आइ ॥ मारै राखै एको आपि ॥ मानुख कै किछु नाही हाथि ॥ तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ ॥ तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि प्रभु सोइ ॥ नानक बिघनु न लागै कोइ ॥१॥
उसतति मन महि करि निरंकार ॥ करि मन मेरे सति बिउहार ॥ निरमल रसना अम्रितु पीउ ॥ सदा सुहेला करि लेहि जीउ ॥ नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु ॥ साधसंगि बिनसै सभ संगु ॥ चरन चलउ मारगि गोबिंद ॥ मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥ कर हरि करम स्रवनि हरि कथा ॥ हरि दरगह नानक ऊजल मथा ॥२॥
बडभागी ते जन जग माहि ॥ सदा सदा हरि के गुन गाहि ॥ राम नाम जो करहि बीचार ॥ से धनवंत गनी संसार ॥ मनि तनि मुखि बोलहि हरि मुखी ॥ सदा सदा जानहु ते सुखी ॥ एको एकु एकु पछानै ॥ इत उत की ओहु सोझी जानै ॥ नाम संगि जिस का मनु मानिआ ॥ नानक तिनहि निरंजनु जानिआ ॥३॥
गुर प्रसादि आपन आपु सुझै ॥ तिस की जानहु त्रिसना बुझै ॥ साधसंगि हरि हरि जसु कहत ॥ सरब रोग ते ओहु हरि जनु रहत ॥ अनदिनु कीरतनु केवल बख्यानु ॥ ग्रिहसत महि सोई निरबानु ॥ एक ऊपरि जिसु जन की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥ पारब्रहम की जिसु मनि भूख ॥ नानक तिसहि न लागहि दूख ॥४॥
जिस कउ हरि प्रभु मनि चिति आवै ॥ सो संतु सुहेला नही डुलावै ॥ जिसु प्रभु अपुना किरपा करै ॥ सो सेवकु कहु किस ते डरै ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाइआ ॥ अपुने कारज महि आपि समाइआ ॥ सोधत सोधत सोधत सीझिआ ॥ गुर प्रसादि ततु सभु बूझिआ ॥ जब देखउ तब सभु किछु मूलु ॥ नानक सो सूखमु सोई असथूलु ॥५॥
नह किछु जनमै नह किछु मरै ॥ आपन चलितु आप ही करै ॥ आवनु जावनु द्रिसटि अनद्रिसटि ॥ आगिआकारी धारी सभ स्रिसटि ॥ आपे आपि सगल महि आपि ॥ अनिक जुगति रचि थापि उथापि ॥ अबिनासी नाही किछु खंड ॥ धारण धारि रहिओ ब्रहमंड ॥ अलख अभेव पुरख परताप ॥ आपि जपाए त नानक जाप ॥६॥
जिन प्रभु जाता सु सोभावंत ॥ सगल संसारु उधरै तिन मंत ॥ प्रभ के सेवक सगल उधारन ॥ प्रभ के सेवक दूख बिसारन ॥ आपे मेलि लए किरपाल ॥ गुर का सबदु जपि भए निहाल ॥ उन की सेवा सोई लागै ॥ जिस नो क्रिपा करहि बडभागै ॥ नामु जपत पावहि बिस्रामु ॥ नानक तिन पुरख कउ ऊतम करि मानु ॥७॥
जो किछु करै सु प्रभ कै रंगि ॥ सदा सदा बसै हरि संगि ॥ सहज सुभाइ होवै सो होइ ॥ करणैहारु पछाणै सोइ ॥ प्रभ का कीआ जन मीठ लगाना ॥ जैसा सा तैसा द्रिसटाना ॥ जिस ते उपजे तिसु माहि समाए ॥ ओइ सुख निधान उनहू बनि आए ॥ आपस कउ आपि दीनो मानु ॥ नानक प्रभ जनु एको जानु ॥८॥१४॥
सलोकु ॥
सरब कला भरपूर प्रभ बिरथा जाननहार ॥ जा कै सिमरनि उधरीऐ नानक तिसु बलिहार ॥१॥
असटपदी ॥
टूटी गाढनहार गोपाल ॥ सरब जीआ आपे प्रतिपाल ॥ सगल की चिंता जिसु मन माहि ॥ तिस ते बिरथा कोई नाहि ॥ रे मन मेरे सदा हरि जापि ॥ अबिनासी प्रभु आपे आपि ॥ आपन कीआ कछू न होइ ॥ जे सउ प्रानी लोचै कोइ ॥ तिसु बिनु नाही तेरै किछु काम ॥ गति नानक जपि एक हरि नाम ॥१॥
रूपवंतु होइ नाही मोहै ॥ प्रभ की जोति सगल घट सोहै ॥ धनवंता होइ किआ को गरबै ॥ जा सभु किछु तिस का दीआ दरबै ॥ अति सूरा जे कोऊ कहावै ॥ प्रभ की कला बिना कह धावै ॥ जे को होइ बहै दातारु ॥ तिसु देनहारु जानै गावारु ॥ जिसु गुर प्रसादि तूटै हउ रोगु ॥ नानक सो जनु सदा अरोगु ॥२॥
जिउ मंदर कउ थामै थमनु ॥ तिउ गुर का सबदु मनहि असथमनु ॥ जिउ पाखाणु नाव चड़ि तरै ॥ प्राणी गुर चरण लगतु निसतरै ॥ जिउ अंधकार दीपक परगासु ॥ गुर दरसनु देखि मनि होइ बिगासु ॥ जिउ महा उदिआन महि मारगु पावै ॥ तिउ साधू संगि मिलि जोति प्रगटावै ॥ तिन संतन की बाछउ धूरि ॥ नानक की हरि लोचा पूरि ॥३॥
मन मूरख काहे बिललाईऐ ॥ पुरब लिखे का लिखिआ पाईऐ ॥ दूख सूख प्रभ देवनहारु ॥ अवर तिआगि तू तिसहि चितारु ॥ जो कछु करै सोई सुखु मानु ॥ भूला काहे फिरहि अजान ॥ कउन बसतु आई तेरै संग ॥ लपटि रहिओ रसि लोभी पतंग ॥ राम नाम जपि हिरदे माहि ॥ नानक पति सेती घरि जाहि ॥४॥
जिसु वखर कउ लैनि तू आइआ ॥ राम नामु संतन घरि पाइआ ॥ तजि अभिमानु लेहु मन मोलि ॥ राम नामु हिरदे महि तोलि ॥ लादि खेप संतह संगि चालु ॥ अवर तिआगि बिखिआ जंजाल ॥ धंनि धंनि कहै सभु कोइ ॥ मुख ऊजल हरि दरगह सोइ ॥ इहु वापारु विरला वापारै ॥ नानक ता कै सद बलिहारै ॥५॥
चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥ अरपि साध कउ अपना जीउ ॥ साध की धूरि करहु इसनानु ॥ साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥ साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ अनिक बिघन ते साधू राखै ॥ हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥ ओट गही संतह दरि आइआ ॥ सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥
मिरतक कउ जीवालनहार ॥ भूखे कउ देवत अधार ॥ सरब निधान जा की द्रिसटी माहि ॥ पुरब लिखे का लहणा पाहि ॥ सभु किछु तिस का ओहु करनै जोगु ॥ तिसु बिनु दूसर होआ न होगु ॥ जपि जन सदा सदा दिनु रैणी ॥ सभ ते ऊच निरमल इह करणी ॥ करि किरपा जिस कउ नामु दीआ ॥ नानक सो जनु निरमलु थीआ ॥७॥
जा कै मनि गुर की परतीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ भगतु भगतु सुनीऐ तिहु लोइ ॥ जा कै हिरदै एको होइ ॥ सचु करणी सचु ता की रहत ॥ सचु हिरदै सति मुखि कहत ॥ साची द्रिसटि साचा आकारु ॥ सचु वरतै साचा पासारु ॥ पारब्रहमु जिनि सचु करि जाता ॥ नानक सो जनु सचि समाता ॥८॥१५॥
सलोकु ॥
रूपु न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन ॥ तिसहि बुझाए नानका जिसु होवै सुप्रसंन ॥१॥
असटपदी ॥
अबिनासी प्रभु मन महि राखु ॥ मानुख की तू प्रीति तिआगु ॥ तिस ते परै नाही किछु कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ आपे बीना आपे दाना ॥ गहिर ग्मभीरु गहीरु सुजाना ॥ पारब्रहम परमेसुर गोबिंद ॥ क्रिपा निधान दइआल बखसंद ॥ साध तेरे की चरनी पाउ ॥ नानक कै मनि इहु अनराउ ॥१॥
मनसा पूरन सरना जोग ॥ जो करि पाइआ सोई होगु ॥ हरन भरन जा का नेत्र फोरु ॥ तिस का मंत्रु न जानै होरु ॥ अनद रूप मंगल सद जा कै ॥ सरब थोक सुनीअहि घरि ता कै ॥ राज महि राजु जोग महि जोगी ॥ तप महि तपीसरु ग्रिहसत महि भोगी ॥ धिआइ धिआइ भगतह सुखु पाइआ ॥ नानक तिसु पुरख का किनै अंतु न पाइआ ॥२॥
जा की लीला की मिति नाहि ॥ सगल देव हारे अवगाहि ॥ पिता का जनमु कि जानै पूतु ॥ सगल परोई अपुनै सूति ॥ सुमति गिआनु धिआनु जिन देइ ॥ जन दास नामु धिआवहि सेइ ॥ तिहु गुण महि जा कउ भरमाए ॥ जनमि मरै फिरि आवै जाए ॥ ऊच नीच तिस के असथान ॥ जैसा जनावै तैसा नानक जान ॥३॥
नाना रूप नाना जा के रंग ॥ नाना भेख करहि इक रंग ॥ नाना बिधि कीनो बिसथारु ॥ प्रभु अबिनासी एकंकारु ॥ नाना चलित करे खिन माहि ॥ पूरि रहिओ पूरनु सभ ठाइ ॥ नाना बिधि करि बनत बनाई ॥ अपनी कीमति आपे पाई ॥ सभ घट तिस के सभ तिस के ठाउ ॥ जपि जपि जीवै नानक हरि नाउ ॥४॥
नाम के धारे सगले जंत ॥ नाम के धारे खंड ब्रहमंड ॥ नाम के धारे सिम्रिति बेद पुरान ॥ नाम के धारे सुनन गिआन धिआन ॥ नाम के धारे आगास पाताल ॥ नाम के धारे सगल आकार ॥ नाम के धारे पुरीआ सभ भवन ॥ नाम कै संगि उधरे सुनि स्रवन ॥ करि किरपा जिसु आपनै नामि लाए ॥ नानक चउथे पद महि सो जनु गति पाए ॥५॥
रूपु सति जा का सति असथानु ॥ पुरखु सति केवल परधानु ॥ करतूति सति सति जा की बाणी ॥ सति पुरख सभ माहि समाणी ॥ सति करमु जा की रचना सति ॥ मूलु सति सति उतपति ॥ सति करणी निरमल निरमली ॥ जिसहि बुझाए तिसहि सभ भली ॥ सति नामु प्रभ का सुखदाई ॥ बिस्वासु सति नानक गुर ते पाई ॥६॥
सति बचन साधू उपदेस ॥ सति ते जन जा कै रिदै प्रवेस ॥ सति निरति बूझै जे कोइ ॥ नामु जपत ता की गति होइ ॥ आपि सति कीआ सभु सति ॥ आपे जानै अपनी मिति गति ॥ जिस की स्रिसटि सु करणैहारु ॥ अवर न बूझि करत बीचारु ॥ करते की मिति न जानै कीआ ॥ नानक जो तिसु भावै सो वरतीआ ॥७॥
बिसमन बिसम भए बिसमाद ॥ जिनि बूझिआ तिसु आइआ स्वाद ॥ प्रभ कै रंगि राचि जन रहे ॥ गुर कै बचनि पदारथ लहे ॥ ओइ दाते दुख काटनहार ॥ जा कै संगि तरै संसार ॥ जन का सेवकु सो वडभागी ॥ जन कै संगि एक लिव लागी ॥ गुन गोबिद कीरतनु जनु गावै ॥ गुर प्रसादि नानक फलु पावै ॥८॥१६॥
सलोकु ॥
आदि सचु जुगादि सचु ॥ है भि सचु नानक होसी भि सचु ॥१॥
असटपदी ॥
चरन सति सति परसनहार ॥ पूजा सति सति सेवदार ॥ दरसनु सति सति पेखनहार ॥ नामु सति सति धिआवनहार ॥ आपि सति सति सभ धारी ॥ आपे गुण आपे गुणकारी ॥ सबदु सति सति प्रभु बकता ॥ सुरति सति सति जसु सुनता ॥ बुझनहार कउ सति सभ होइ ॥ नानक सति सति प्रभु सोइ ॥१॥
सति सरूपु रिदै जिनि मानिआ ॥ करन करावन तिनि मूलु पछानिआ ॥ जा कै रिदै बिस्वासु प्रभ आइआ ॥ ततु गिआनु तिसु मनि प्रगटाइआ ॥ भै ते निरभउ होइ बसाना ॥ जिस ते उपजिआ तिसु माहि समाना ॥ बसतु माहि ले बसतु गडाई ॥ ता कउ भिंन न कहना जाई ॥ बूझै बूझनहारु बिबेक ॥ नाराइन मिले नानक एक ॥२॥
ठाकुर का सेवकु आगिआकारी ॥ ठाकुर का सेवकु सदा पूजारी ॥ ठाकुर के सेवक कै मनि परतीति ॥ ठाकुर के सेवक की निरमल रीति ॥ ठाकुर कउ सेवकु जानै संगि ॥ प्रभ का सेवकु नाम कै रंगि ॥ सेवक कउ प्रभ पालनहारा ॥ सेवक की राखै निरंकारा ॥ सो सेवकु जिसु दइआ प्रभु धारै ॥ नानक सो सेवकु सासि सासि समारै ॥३॥
अपुने जन का परदा ढाकै ॥ अपने सेवक की सरपर राखै ॥ अपने दास कउ देइ वडाई ॥ अपने सेवक कउ नामु जपाई ॥ अपने सेवक की आपि पति राखै ॥ ता की गति मिति कोइ न लाखै ॥ प्रभ के सेवक कउ को न पहूचै ॥ प्रभ के सेवक ऊच ते ऊचे ॥ जो प्रभि अपनी सेवा लाइआ ॥ नानक सो सेवकु दह दिसि प्रगटाइआ ॥४॥
नीकी कीरी महि कल राखै ॥ भसम करै लसकर कोटि लाखै ॥ जिस का सासु न काढत आपि ॥ ता कउ राखत दे करि हाथ ॥ मानस जतन करत बहु भाति ॥ तिस के करतब बिरथे जाति ॥ मारै न राखै अवरु न कोइ ॥ सरब जीआ का राखा सोइ ॥ काहे सोच करहि रे प्राणी ॥ जपि नानक प्रभ अलख विडाणी ॥५॥
बारं बार बार प्रभु जपीऐ ॥ पी अम्रितु इहु मनु तनु ध्रपीऐ ॥ नाम रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ॥ तिसु किछु अवरु नाही द्रिसटाइआ ॥ नामु धनु नामो रूपु रंगु ॥ नामो सुखु हरि नाम का संगु ॥ नाम रसि जो जन त्रिपताने ॥ मन तन नामहि नामि समाने ॥ ऊठत बैठत सोवत नाम ॥ कहु नानक जन कै सद काम ॥६॥
बोलहु जसु जिहबा दिनु राति ॥ प्रभि अपनै जन कीनी दाति ॥ करहि भगति आतम कै चाइ ॥ प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ ॥ जो होआ होवत सो जानै ॥ प्रभ अपने का हुकमु पछानै ॥ तिस की महिमा कउन बखानउ ॥ तिस का गुनु कहि एक न जानउ ॥ आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे ॥ कहु नानक सेई जन पूरे ॥७॥
मन मेरे तिन की ओट लेहि ॥ मनु तनु अपना तिन जन देहि ॥ जिनि जनि अपना प्रभू पछाता ॥ सो जनु सरब थोक का दाता ॥ तिस की सरनि सरब सुख पावहि ॥ तिस कै दरसि सभ पाप मिटावहि ॥ अवर सिआनप सगली छाडु ॥ तिसु जन की तू सेवा लागु ॥ आवनु जानु न होवी तेरा ॥ नानक तिसु जन के पूजहु सद पैरा ॥८॥१७॥
सलोकु ॥
सति पुरखु जिनि जानिआ सतिगुरु तिस का नाउ ॥ तिस कै संगि सिखु उधरै नानक हरि गुन गाउ ॥१॥
असटपदी ॥
सतिगुरु सिख की करै प्रतिपाल ॥ सेवक कउ गुरु सदा दइआल ॥ सिख की गुरु दुरमति मलु हिरै ॥ गुर बचनी हरि नामु उचरै ॥ सतिगुरु सिख के बंधन काटै ॥ गुर का सिखु बिकार ते हाटै ॥ सतिगुरु सिख कउ नाम धनु देइ ॥ गुर का सिखु वडभागी हे ॥ सतिगुरु सिख का हलतु पलतु सवारै ॥ नानक सतिगुरु सिख कउ जीअ नालि समारै ॥१॥
गुर कै ग्रिहि सेवकु जो रहै ॥ गुर की आगिआ मन महि सहै ॥ आपस कउ करि कछु न जनावै ॥ हरि हरि नामु रिदै सद धिआवै ॥ मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥ तिसु सेवक के कारज रासि ॥ सेवा करत होइ निहकामी ॥ तिस कउ होत परापति सुआमी ॥ अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥ नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ ॥२॥
बीस बिसवे गुर का मनु मानै ॥ सो सेवकु परमेसुर की गति जानै ॥ सो सतिगुरु जिसु रिदै हरि नाउ ॥ अनिक बार गुर कउ बलि जाउ ॥ सरब निधान जीअ का दाता ॥ आठ पहर पारब्रहम रंगि राता ॥ ब्रहम महि जनु जन महि पारब्रहमु ॥ एकहि आपि नही कछु भरमु ॥ सहस सिआनप लइआ न जाईऐ ॥ नानक ऐसा गुरु बडभागी पाईऐ ॥३॥
सफल दरसनु पेखत पुनीत ॥ परसत चरन गति निरमल रीति ॥ भेटत संगि राम गुन रवे ॥ पारब्रहम की दरगह गवे ॥ सुनि करि बचन करन आघाने ॥ मनि संतोखु आतम पतीआने ॥ पूरा गुरु अख्यओ जा का मंत्र ॥ अम्रित द्रिसटि पेखै होइ संत ॥ गुण बिअंत कीमति नही पाइ ॥ नानक जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥४॥
जिहबा एक उसतति अनेक ॥ सति पुरख पूरन बिबेक ॥ काहू बोल न पहुचत प्रानी ॥ अगम अगोचर प्रभ निरबानी ॥ निराहार निरवैर सुखदाई ॥ ता की कीमति किनै न पाई ॥ अनिक भगत बंदन नित करहि ॥ चरन कमल हिरदै सिमरहि ॥ सद बलिहारी सतिगुर अपने ॥ नानक जिसु प्रसादि ऐसा प्रभु जपने ॥५॥
इहु हरि रसु पावै जनु कोइ ॥ अम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥ उसु पुरख का नाही कदे बिनास ॥ जा कै मनि प्रगटे गुनतास ॥ आठ पहर हरि का नामु लेइ ॥ सचु उपदेसु सेवक कउ देइ ॥ मोह माइआ कै संगि न लेपु ॥ मन महि राखै हरि हरि एकु ॥ अंधकार दीपक परगासे ॥ नानक भरम मोह दुख तह ते नासे ॥६॥
तपति माहि ठाढि वरताई ॥ अनदु भइआ दुख नाठे भाई ॥ जनम मरन के मिटे अंदेसे ॥ साधू के पूरन उपदेसे ॥ भउ चूका निरभउ होइ बसे ॥ सगल बिआधि मन ते खै नसे ॥ जिस का सा तिनि किरपा धारी ॥ साधसंगि जपि नामु मुरारी ॥ थिति पाई चूके भ्रम गवन ॥ सुनि नानक हरि हरि जसु स्रवन ॥७॥
निरगुनु आपि सरगुनु भी ओही ॥ कला धारि जिनि सगली मोही ॥ अपने चरित प्रभि आपि बनाए ॥ अपुनी कीमति आपे पाए ॥ हरि बिनु दूजा नाही कोइ ॥ सरब निरंतरि एको सोइ ॥ ओति पोति रविआ रूप रंग ॥ भए प्रगास साध कै संग ॥ रचि रचना अपनी कल धारी ॥ अनिक बार नानक बलिहारी ॥८॥१८॥
सलोकु ॥
साथि न चालै बिनु भजन बिखिआ सगली छारु ॥ हरि हरि नामु कमावना नानक इहु धनु सारु ॥१॥
असटपदी ॥
संत जना मिलि करहु बीचारु ॥ एकु सिमरि नाम आधारु ॥ अवरि उपाव सभि मीत बिसारहु ॥ चरन कमल रिद महि उरि धारहु ॥ करन कारन सो प्रभु समरथु ॥ द्रिड़ु करि गहहु नामु हरि वथु ॥ इहु धनु संचहु होवहु भगवंत ॥ संत जना का निरमल मंत ॥ एक आस राखहु मन माहि ॥ सरब रोग नानक मिटि जाहि ॥१॥
जिसु धन कउ चारि कुंट उठि धावहि ॥ सो धनु हरि सेवा ते पावहि ॥ जिसु सुख कउ नित बाछहि मीत ॥ सो सुखु साधू संगि परीति ॥ जिसु सोभा कउ करहि भली करनी ॥ सा सोभा भजु हरि की सरनी ॥ अनिक उपावी रोगु न जाइ ॥ रोगु मिटै हरि अवखधु लाइ ॥ सरब निधान महि हरि नामु निधानु ॥ जपि नानक दरगहि परवानु ॥२॥
मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥ दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥ ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥ जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥ कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥ सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥ भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥ भगति भाइ आतम परगास ॥ तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥ कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
ततु बीचारु कहै जनु साचा ॥ जनमि मरै सो काचो काचा ॥ आवा गवनु मिटै प्रभ सेव ॥ आपु तिआगि सरनि गुरदेव ॥ इउ रतन जनम का होइ उधारु ॥ हरि हरि सिमरि प्रान आधारु ॥ अनिक उपाव न छूटनहारे ॥ सिम्रिति सासत बेद बीचारे ॥ हरि की भगति करहु मनु लाइ ॥ मनि बंछत नानक फल पाइ ॥४॥
संगि न चालसि तेरै धना ॥ तूं किआ लपटावहि मूरख मना ॥ सुत मीत कुट्मब अरु बनिता ॥ इन ते कहहु तुम कवन सनाथा ॥ राज रंग माइआ बिसथार ॥ इन ते कहहु कवन छुटकार ॥ असु हसती रथ असवारी ॥ झूठा ड्मफु झूठु पासारी ॥ जिनि दीए तिसु बुझै न बिगाना ॥ नामु बिसारि नानक पछुताना ॥५॥
गुर की मति तूं लेहि इआने ॥ भगति बिना बहु डूबे सिआने ॥ हरि की भगति करहु मन मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारो चीत ॥ चरन कमल राखहु मन माहि ॥ जनम जनम के किलबिख जाहि ॥ आपि जपहु अवरा नामु जपावहु ॥ सुनत कहत रहत गति पावहु ॥ सार भूत सति हरि को नाउ ॥ सहजि सुभाइ नानक गुन गाउ ॥६॥
गुन गावत तेरी उतरसि मैलु ॥ बिनसि जाइ हउमै बिखु फैलु ॥ होहि अचिंतु बसै सुख नालि ॥ सासि ग्रासि हरि नामु समालि ॥ छाडि सिआनप सगली मना ॥ साधसंगि पावहि सचु धना ॥ हरि पूंजी संचि करहु बिउहारु ॥ ईहा सुखु दरगह जैकारु ॥ सरब निरंतरि एको देखु ॥ कहु नानक जा कै मसतकि लेखु ॥७॥
एको जपि एको सालाहि ॥ एकु सिमरि एको मन आहि ॥ एकस के गुन गाउ अनंत ॥ मनि तनि जापि एक भगवंत ॥ एको एकु एकु हरि आपि ॥ पूरन पूरि रहिओ प्रभु बिआपि ॥ अनिक बिसथार एक ते भए ॥ एकु अराधि पराछत गए ॥ मन तन अंतरि एकु प्रभु राता ॥ गुर प्रसादि नानक इकु जाता ॥८॥१९॥
सलोकु ॥
फिरत फिरत प्रभ आइआ परिआ तउ सरनाइ ॥ नानक की प्रभ बेनती अपनी भगती लाइ ॥१॥
असटपदी ॥
जाचक जनु जाचै प्रभ दानु ॥ करि किरपा देवहु हरि नामु ॥ साध जना की मागउ धूरि ॥ पारब्रहम मेरी सरधा पूरि ॥ सदा सदा प्रभ के गुन गावउ ॥ सासि सासि प्रभ तुमहि धिआवउ ॥ चरन कमल सिउ लागै प्रीति ॥ भगति करउ प्रभ की नित नीति ॥ एक ओट एको आधारु ॥ नानकु मागै नामु प्रभ सारु ॥१॥
प्रभ की द्रिसटि महा सुखु होइ ॥ हरि रसु पावै बिरला कोइ ॥ जिन चाखिआ से जन त्रिपताने ॥ पूरन पुरख नही डोलाने ॥ सुभर भरे प्रेम रस रंगि ॥ उपजै चाउ साध कै संगि ॥ परे सरनि आन सभ तिआगि ॥ अंतरि प्रगास अनदिनु लिव लागि ॥ बडभागी जपिआ प्रभु सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥२॥
सेवक की मनसा पूरी भई ॥ सतिगुर ते निरमल मति लई ॥ जन कउ प्रभु होइओ दइआलु ॥ सेवकु कीनो सदा निहालु ॥ बंधन काटि मुकति जनु भइआ ॥ जनम मरन दूखु भ्रमु गइआ ॥ इछ पुनी सरधा सभ पूरी ॥ रवि रहिआ सद संगि हजूरी ॥ जिस का सा तिनि लीआ मिलाइ ॥ नानक भगती नामि समाइ ॥३॥
सो किउ बिसरै जि घाल न भानै ॥ सो किउ बिसरै जि कीआ जानै ॥ सो किउ बिसरै जिनि सभु किछु दीआ ॥ सो किउ बिसरै जि जीवन जीआ ॥ सो किउ बिसरै जि अगनि महि राखै ॥ गुर प्रसादि को बिरला लाखै ॥ सो किउ बिसरै जि बिखु ते काढै ॥ जनम जनम का टूटा गाढै ॥ गुरि पूरै ततु इहै बुझाइआ ॥ प्रभु अपना नानक जन धिआइआ ॥४॥
साजन संत करहु इहु कामु ॥ आन तिआगि जपहु हरि नामु ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुख पावहु ॥ आपि जपहु अवरह नामु जपावहु ॥ भगति भाइ तरीऐ संसारु ॥ बिनु भगती तनु होसी छारु ॥ सरब कलिआण सूख निधि नामु ॥ बूडत जात पाए बिस्रामु ॥ सगल दूख का होवत नासु ॥ नानक नामु जपहु गुनतासु ॥५॥
उपजी प्रीति प्रेम रसु चाउ ॥ मन तन अंतरि इही सुआउ ॥ नेत्रहु पेखि दरसु सुखु होइ ॥ मनु बिगसै साध चरन धोइ ॥ भगत जना कै मनि तनि रंगु ॥ बिरला कोऊ पावै संगु ॥ एक बसतु दीजै करि मइआ ॥ गुर प्रसादि नामु जपि लइआ ॥ ता की उपमा कही न जाइ ॥ नानक रहिआ सरब समाइ ॥६॥
प्रभ बखसंद दीन दइआल ॥ भगति वछल सदा किरपाल ॥ अनाथ नाथ गोबिंद गुपाल ॥ सरब घटा करत प्रतिपाल ॥ आदि पुरख कारण करतार ॥ भगत जना के प्रान अधार ॥ जो जो जपै सु होइ पुनीत ॥ भगति भाइ लावै मन हीत ॥ हम निरगुनीआर नीच अजान ॥ नानक तुमरी सरनि पुरख भगवान ॥७॥
सरब बैकुंठ मुकति मोख पाए ॥ एक निमख हरि के गुन गाए ॥ अनिक राज भोग बडिआई ॥ हरि के नाम की कथा मनि भाई ॥ बहु भोजन कापर संगीत ॥ रसना जपती हरि हरि नीत ॥ भली सु करनी सोभा धनवंत ॥ हिरदै बसे पूरन गुर मंत ॥ साधसंगि प्रभ देहु निवास ॥ सरब सूख नानक परगास ॥८॥२०॥
सलोकु ॥
सरगुन निरगुन निरंकार सुंन समाधी आपि ॥ आपन कीआ नानका आपे ही फिरि जापि ॥१॥
असटपदी ॥
जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता ॥ पाप पुंन तब कह ते होता ॥ जब धारी आपन सुंन समाधि ॥ तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति ॥ जब इस का बरनु चिहनु न जापत ॥ तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत ॥ जब आपन आप आपि पारब्रहम ॥ तब मोह कहा किसु होवत भरम ॥ आपन खेलु आपि वरतीजा ॥ नानक करनैहारु न दूजा ॥१॥
जब होवत प्रभ केवल धनी ॥ तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥ जब एकहि हरि अगम अपार ॥ तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥ जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ॥ तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥ जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ॥ तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥ आपन चलित आपि करनैहार ॥ नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥
अबिनासी सुख आपन आसन ॥ तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥ जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥ तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥ जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥ तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥ जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥ तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥ आपन आप आप ही अचरजा ॥ नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥
जह निरमल पुरखु पुरख पति होता ॥ तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥ जह निरंजन निरंकार निरबान ॥ तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥ जह सरूप केवल जगदीस ॥ तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥ जह जोति सरूपी जोति संगि समावै ॥ तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ॥ करन करावन करनैहारु ॥ नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥
जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ॥ तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥ जह सरब कला आपहि परबीन ॥ तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥ जब आपन आपु आपि उरि धारै ॥ तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥ जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ॥ तह कउन ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥ बिसमन बिसम रहे बिसमाद ॥ नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥
जह अछल अछेद अभेद समाइआ ॥ ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥ आपस कउ आपहि आदेसु ॥ तिहु गुण का नाही परवेसु ॥ जह एकहि एक एक भगवंता ॥ तह कउनु अचिंतु किसु लागै चिंता ॥ जह आपन आपु आपि पतीआरा ॥ तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥ बहु बेअंत ऊच ते ऊचा ॥ नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥
जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥ पापु पुंनु तह भई कहावत ॥ कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥ आल जाल माइआ जंजाल ॥ हउमै मोह भरम भै भार ॥ दूख सूख मान अपमान ॥ अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥ आपन खेलु आपि करि देखै ॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥
जह अबिगतु भगतु तह आपि ॥ जह पसरै पासारु संत परतापि ॥ दुहू पाख का आपहि धनी ॥ उन की सोभा उनहू बनी ॥ आपहि कउतक करै अनद चोज ॥ आपहि रस भोगन निरजोग ॥ जिसु भावै तिसु आपन नाइ लावै ॥ जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥ बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ॥ जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥२१॥
सलोकु ॥
जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥ नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥
असटपदी ॥
आपि कथै आपि सुननैहारु ॥ आपहि एकु आपि बिसथारु ॥ जा तिसु भावै ता स्रिसटि उपाए ॥ आपनै भाणै लए समाए ॥ तुम ते भिंन नही किछु होइ ॥ आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥ जा कउ प्रभ जीउ आपि बुझाए ॥ सचु नामु सोई जनु पाए ॥ सो समदरसी तत का बेता ॥ नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥
जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥ दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥ जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥ सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥ तिसु तजि अवर कहा को जाइ ॥ सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥ जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ॥ अंतरि बाहरि जानहु साथि ॥ गुन निधान बेअंत अपार ॥ नानक दास सदा बलिहार ॥२॥
पूरन पूरि रहे दइआल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ अपने करतब जानै आपि ॥ अंतरजामी रहिओ बिआपि ॥ प्रतिपालै जीअन बहु भाति ॥ जो जो रचिओ सु तिसहि धिआति ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ भगति करहि हरि के गुण गाइ ॥ मन अंतरि बिस्वासु करि मानिआ ॥ करनहारु नानक इकु जानिआ ॥३॥
जनु लागा हरि एकै नाइ ॥ तिस की आस न बिरथी जाइ ॥ सेवक कउ सेवा बनि आई ॥ हुकमु बूझि परम पदु पाई ॥ इस ते ऊपरि नही बीचारु ॥ जा कै मनि बसिआ निरंकारु ॥ बंधन तोरि भए निरवैर ॥ अनदिनु पूजहि गुर के पैर ॥ इह लोक सुखीए परलोक सुहेले ॥ नानक हरि प्रभि आपहि मेले ॥४॥
साधसंगि मिलि करहु अनंद ॥ गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥ राम नाम ततु करहु बीचारु ॥ द्रुलभ देह का करहु उधारु ॥ अम्रित बचन हरि के गुन गाउ ॥ प्रान तरन का इहै सुआउ ॥ आठ पहर प्रभ पेखहु नेरा ॥ मिटै अगिआनु बिनसै अंधेरा ॥ सुनि उपदेसु हिरदै बसावहु ॥ मन इछे नानक फल पावहु ॥५॥
हलतु पलतु दुइ लेहु सवारि ॥ राम नामु अंतरि उरि धारि ॥ पूरे गुर की पूरी दीखिआ ॥ जिसु मनि बसै तिसु साचु परीखिआ ॥ मनि तनि नामु जपहु लिव लाइ ॥ दूखु दरदु मन ते भउ जाइ ॥ सचु वापारु करहु वापारी ॥ दरगह निबहै खेप तुमारी ॥ एका टेक रखहु मन माहि ॥ नानक बहुरि न आवहि जाहि ॥६॥
तिस ते दूरि कहा को जाइ ॥ उबरै राखनहारु धिआइ ॥ निरभउ जपै सगल भउ मिटै ॥ प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ॥ जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥ चिंता जाइ मिटै अहंकारु ॥ तिसु जन कउ कोइ न पहुचनहारु ॥ सिर ऊपरि ठाढा गुरु सूरा ॥ नानक ता के कारज पूरा ॥७॥
मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥ दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥ चरन कमल जा के अनूप ॥ सफल दरसनु सुंदर हरि रूप ॥ धंनु सेवा सेवकु परवानु ॥ अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥ जिसु मनि बसै सु होत निहालु ॥ ता कै निकटि न आवत कालु ॥ अमर भए अमरा पदु पाइआ ॥ साधसंगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥२२॥
सलोकु ॥
गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥
असटपदी ॥
संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा ॥ नामु प्रभू का लागा मीठा ॥ सगल समिग्री एकसु घट माहि ॥ अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥ नउ निधि अम्रितु प्रभ का नामु ॥ देही महि इस का बिस्रामु ॥ सुंन समाधि अनहत तह नाद ॥ कहनु न जाई अचरज बिसमाद ॥ तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ॥ नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥
सो अंतरि सो बाहरि अनंत ॥ घटि घटि बिआपि रहिआ भगवंत ॥ धरनि माहि आकास पइआल ॥ सरब लोक पूरन प्रतिपाल ॥ बनि तिनि परबति है पारब्रहमु ॥ जैसी आगिआ तैसा करमु ॥ पउण पाणी बैसंतर माहि ॥ चारि कुंट दह दिसे समाहि ॥ तिस ते भिंन नही को ठाउ ॥ गुर प्रसादि नानक सुखु पाउ ॥२॥
बेद पुरान सिम्रिति महि देखु ॥ ससीअर सूर नख्यत्र महि एकु ॥ बाणी प्रभ की सभु को बोलै ॥ आपि अडोलु न कबहू डोलै ॥ सरब कला करि खेलै खेल ॥ मोलि न पाईऐ गुणह अमोल ॥ सरब जोति महि जा की जोति ॥ धारि रहिओ सुआमी ओति पोति ॥ गुर परसादि भरम का नासु ॥ नानक तिन महि एहु बिसासु ॥३॥
संत जना का पेखनु सभु ब्रहम ॥ संत जना कै हिरदै सभि धरम ॥ संत जना सुनहि सुभ बचन ॥ सरब बिआपी राम संगि रचन ॥ जिनि जाता तिस की इह रहत ॥ सति बचन साधू सभि कहत ॥ जो जो होइ सोई सुखु मानै ॥ करन करावनहारु प्रभु जानै ॥ अंतरि बसे बाहरि भी ओही ॥ नानक दरसनु देखि सभ मोही ॥४॥
आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥ तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥ तिसु भावै ता एकंकारु ॥ अनिक कला लखी नह जाइ ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥ आपे आपि आप भरपूरि ॥ अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥ नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥
सरब भूत आपि वरतारा ॥ सरब नैन आपि पेखनहारा ॥ सगल समग्री जा का तना ॥ आपन जसु आप ही सुना ॥ आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥ आगिआकारी कीनी माइआ ॥ सभ कै मधि अलिपतो रहै ॥ जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥ आगिआ आवै आगिआ जाइ ॥ नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥
इस ते होइ सु नाही बुरा ॥ ओरै कहहु किनै कछु करा ॥ आपि भला करतूति अति नीकी ॥ आपे जानै अपने जी की ॥ आपि साचु धारी सभ साचु ॥ ओति पोति आपन संगि राचु ॥ ता की गति मिति कही न जाइ ॥ दूसर होइ त सोझी पाइ ॥ तिस का कीआ सभु परवानु ॥ गुर प्रसादि नानक इहु जानु ॥७॥
जो जानै तिसु सदा सुखु होइ ॥ आपि मिलाइ लए प्रभु सोइ ॥ ओहु धनवंतु कुलवंतु पतिवंतु ॥ जीवन मुकति जिसु रिदै भगवंतु ॥ धंनु धंनु धंनु जनु आइआ ॥ जिसु प्रसादि सभु जगतु तराइआ ॥ जन आवन का इहै सुआउ ॥ जन कै संगि चिति आवै नाउ ॥ आपि मुकतु मुकतु करै संसारु ॥ नानक तिसु जन कउ सदा नमसकारु ॥८॥२३॥
सलोकु ॥
पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ ॥ नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ ॥१॥
असटपदी ॥
पूरे गुर का सुनि उपदेसु ॥ पारब्रहमु निकटि करि पेखु ॥ सासि सासि सिमरहु गोबिंद ॥ मन अंतर की उतरै चिंद ॥ आस अनित तिआगहु तरंग ॥ संत जना की धूरि मन मंग ॥ आपु छोडि बेनती करहु ॥ साधसंगि अगनि सागरु तरहु ॥ हरि धन के भरि लेहु भंडार ॥ नानक गुर पूरे नमसकार ॥१॥
खेम कुसल सहज आनंद ॥ साधसंगि भजु परमानंद ॥ नरक निवारि उधारहु जीउ ॥ गुन गोबिंद अम्रित रसु पीउ ॥ चिति चितवहु नाराइण एक ॥ एक रूप जा के रंग अनेक ॥ गोपाल दामोदर दीन दइआल ॥ दुख भंजन पूरन किरपाल ॥ सिमरि सिमरि नामु बारं बार ॥ नानक जीअ का इहै अधार ॥२॥
उतम सलोक साध के बचन ॥ अमुलीक लाल एहि रतन ॥ सुनत कमावत होत उधार ॥ आपि तरै लोकह निसतार ॥ सफल जीवनु सफलु ता का संगु ॥ जा कै मनि लागा हरि रंगु ॥ जै जै सबदु अनाहदु वाजै ॥ सुनि सुनि अनद करे प्रभु गाजै ॥ प्रगटे गुपाल महांत कै माथे ॥ नानक उधरे तिन कै साथे ॥३॥
सरनि जोगु सुनि सरनी आए ॥ करि किरपा प्रभ आप मिलाए ॥ मिटि गए बैर भए सभ रेन ॥ अम्रित नामु साधसंगि लैन ॥ सुप्रसंन भए गुरदेव ॥ पूरन होई सेवक की सेव ॥ आल जंजाल बिकार ते रहते ॥ राम नाम सुनि रसना कहते ॥ करि प्रसादु दइआ प्रभि धारी ॥ नानक निबही खेप हमारी ॥४॥
प्रभ की उसतति करहु संत मीत ॥ सावधान एकागर चीत ॥ सुखमनी सहज गोबिंद गुन नाम ॥ जिसु मनि बसै सु होत निधान ॥ सरब इछा ता की पूरन होइ ॥ प्रधान पुरखु प्रगटु सभ लोइ ॥ सभ ते ऊच पाए असथानु ॥ बहुरि न होवै आवन जानु ॥ हरि धनु खाटि चलै जनु सोइ ॥ नानक जिसहि परापति होइ ॥५॥
खेम सांति रिधि नव निधि ॥ बुधि गिआनु सरब तह सिधि ॥ बिदिआ तपु जोगु प्रभ धिआनु ॥ गिआनु स्रेसट ऊतम इसनानु ॥ चारि पदारथ कमल प्रगास ॥ सभ कै मधि सगल ते उदास ॥ सुंदरु चतुरु तत का बेता ॥ समदरसी एक द्रिसटेता ॥ इह फल तिसु जन कै मुखि भने ॥ गुर नानक नाम बचन मनि सुने ॥६॥
इहु निधानु जपै मनि कोइ ॥ सभ जुग महि ता की गति होइ ॥ गुण गोबिंद नाम धुनि बाणी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद बखाणी ॥ सगल मतांत केवल हरि नाम ॥ गोबिंद भगत कै मनि बिस्राम ॥ कोटि अप्राध साधसंगि मिटै ॥ संत क्रिपा ते जम ते छुटै ॥ जा कै मसतकि करम प्रभि पाए ॥ साध सरणि नानक ते आए ॥७॥
जिसु मनि बसै सुनै लाइ प्रीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ जनम मरन ता का दूखु निवारै ॥ दुलभ देह ततकाल उधारै ॥ निरमल सोभा अम्रित ता की बानी ॥ एकु नामु मन माहि समानी ॥ दूख रोग बिनसे भै भरम ॥ साध नाम निरमल ता के करम ॥ सभ ते ऊच ता की सोभा बनी ॥ नानक इह गुणि नामु सुखमनी ॥८॥२४॥
Sukhmani Sahib Path in Punjabi
ਗਉੜੀ ਸੁਖਮਨੀ ਮਃ 5 ॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
ਆਦਿ ਗੁਰਏ ਨਮਹ ॥
ਜੁਗਾਦਿ ਗੁਰਏ ਨਮਹ ॥
ਸਤਿਗੁਰਏ ਨਮਹ ॥
ਸ੍ਰੀ ਗੁਰਦੇਵਏ ਨਮਹ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਸਿਮਰਉ ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਸੁਖੁ ਪਾਵਉ ॥
ਕਲਿ ਕਲੇਸ ਤਨ ਮਾਹਿ ਮਿਟਾਵਉ ॥
ਸਿਮਰਉ ਜਾਸੁ ਬਿਸੁੰਭਰ ਏਕੈ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਅਗਨਤ ਅਨੇਕੈ ॥
ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ਸਿੰਮ੍ਰਿਤਿ ਸੁਧਾਖ੍ਹਰ ॥
ਕੀਨੇ ਰਾਮ ਨਾਮ ਇਕ ਆਖ੍ਹਰ ॥
ਕਿਨਕਾ ਏਕ ਜਿਸੁ ਜੀਅ ਬਸਾਵੈ ॥
ਤਾ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਗਨੀ ਨ ਆਵੈ ॥
ਕਾਂਖੀ ਏਕੈ ਦਰਸ ਤੁਹਾਰੋ ॥
ਨਾਨਕ ਉਨ ਸੰਗਿ ਮੋਹਿ ਉਧਾਰੋ ॥1॥
ਸੁਖਮਨੀ ਸੁਖ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਪ੍ਰਭ ਨਾਮੁ ॥
ਭਗਤ ਜਨਾ ਕੈ ਮਨਿ ਬਿਸ੍ਰਾਮ ॥ ਰਹਾਉ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਗਰਭਿ ਨ ਬਸੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਦੂਖੁ ਜਮੁ ਨਸੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਕਾਲੁ ਪਰਹਰੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਦੁਸਮਨੁ ਟਰੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਸਿਮਰਤ ਕਛੁ ਬਿਘਨੁ ਨ ਲਾਗੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਭਉ ਨ ਬਿਆਪੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਦੁਖੁ ਨ ਸੰਤਾਪੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਸਿਮਰਨੁ ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥
ਸਰਬ ਨਿਧਾਨ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਰੰਗਿ ॥2॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਰਿਧਿ ਸਿਧਿ ਨਉ ਨਿਧਿ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਤਤੁ ਬੁਧਿ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਜਪ ਤਪ ਪੂਜਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਬਿਨਸੈ ਦੂਜਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਤੀਰਥ ਇਸਨਾਨੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਦਰਗਹ ਮਾਨੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਹੋਇ ਸੁ ਭਲਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਸੁਫਲ ਫਲਾ ॥
ਸੇ ਸਿਮਰਹਿ ਜਿਨ ਆਪਿ ਸਿਮਰਾਏ ॥
ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੈ ਲਾਗਉ ਪਾਏ ॥3॥
ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਸਿਮਰਨੁ ਸਭ ਤੇ ਊਚਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਉਧਰੇ ਮੂਚਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਬੁਝੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਸੁਝੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਨਾਹੀ ਜਮ ਤ੍ਰਾਸਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਪੂਰਨ ਆਸਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਮਨ ਕੀ ਮਲੁ ਜਾਇ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਰਿਦ ਮਾਹਿ ਸਮਾਇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਜੀ ਬਸਹਿ ਸਾਧ ਕੀ ਰਸਨਾ ॥
ਨਾਨਕ ਜਨ ਕਾ ਦਾਸਨਿ ਦਸਨਾ ॥4॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਧਨਵੰਤੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਪਤਿਵੰਤੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਜਨ ਪਰਵਾਨ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਪੁਰਖ ਪ੍ਰਧਾਨ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸਿ ਬੇਮੁਹਤਾਜੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸਿ ਸਰਬ ਕੇ ਰਾਜੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਸੁਖਵਾਸੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸਦਾ ਅਬਿਨਾਸੀ ॥
ਸਿਮਰਨ ਤੇ ਲਾਗੇ ਜਿਨ ਆਪਿ ਦਇਆਲਾ ॥
ਨਾਨਕ ਜਨ ਕੀ ਮੰਗੈ ਰਵਾਲਾ ॥5॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਪਰਉਪਕਾਰੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਤਿਨ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਮੁਖ ਸੁਹਾਵੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਤਿਨ ਸੂਖਿ ਬਿਹਾਵੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਤਿਨ ਆਤਮੁ ਜੀਤਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਤਿਨ ਨਿਰਮਲ ਰੀਤਾ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਤਿਨ ਅਨਦ ਘਨੇਰੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਿਮਰਹਿ ਬਸਹਿ ਹਰਿ ਨੇਰੇ ॥
ਸੰਤ ਕ੍ਰਿਪਾ ਤੇ ਅਨਦਿਨੁ ਜਾਗਿ ॥
ਨਾਨਕ ਸਿਮਰਨੁ ਪੂਰੈ ਭਾਗਿ ॥6॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਕਾਰਜ ਪੂਰੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਕਬਹੁ ਨ ਝੂਰੇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਹਰਿ ਗੁਨ ਬਾਨੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਨੀ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਨਿਹਚਲ ਆਸਨੁ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਕਮਲ ਬਿਗਾਸਨੁ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਅਨਹਦ ਝੁਨਕਾਰ ॥
ਸੁਖੁ ਪ੍ਰਭ ਸਿਮਰਨ ਕਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰ ॥
ਸਿਮਰਹਿ ਸੇ ਜਨ ਜਿਨ ਕਉ ਪ੍ਰਭ ਮਇਆ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਜਨ ਸਰਨੀ ਪਇਆ ॥7॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨੁ ਕਰਿ ਭਗਤ ਪ੍ਰਗਟਾਏ ॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨਿ ਲਗਿ ਬੇਦ ਉਪਾਏ ॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨਿ ਭਏ ਸਿਧ ਜਤੀ ਦਾਤੇ ॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨਿ ਨੀਚ ਚਹੁ ਕੁੰਟ ਜਾਤੇ ॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨਿ ਧਾਰੀ ਸਭ ਧਰਨਾ ॥
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਹਰਿ ਕਾਰਨ ਕਰਨਾ ॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨਿ ਕੀਓ ਸਗਲ ਅਕਾਰਾ ॥
ਹਰਿ ਸਿਮਰਨ ਮਹਿ ਆਪਿ ਨਿਰੰਕਾਰਾ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਬੁਝਾਇਆ ॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਹਰਿ ਸਿਮਰਨੁ ਤਿਨਿ ਪਾਇਆ ॥8॥1॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਦੀਨ ਦਰਦ ਦੁਖ ਭੰਜਨਾ ਘਟਿ ਘਟਿ ਨਾਥ ਅਨਾਥ ॥
ਸਰਣਿ ਤੁਮ੍ਾਰੀ ਆਇਓ ਨਾਨਕ ਕੇ ਪ੍ਰਭ ਸਾਥ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਜਹ ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਸੁਤ ਮੀਤ ਨ ਭਾਈ ॥
ਮਨ ਊਹਾ ਨਾਮੁ ਤੇਰੈ ਸੰਗਿ ਸਹਾਈ ॥
ਜਹ ਮਹਾ ਭਇਆਨ ਦੂਤ ਜਮ ਦਲੈ ॥
ਤਹ ਕੇਵਲ ਨਾਮੁ ਸੰਗਿ ਤੇਰੈ ਚਲੈ ॥
ਜਹ ਮੁਸਕਲ ਹੋਵੈ ਅਤਿ ਭਾਰੀ ॥
ਹਰਿ ਕੋ ਨਾਮੁ ਖਿਨ ਮਾਹਿ ਉਧਾਰੀ ॥
ਅਨਿਕ ਪੁਨਹਚਰਨ ਕਰਤ ਨਹੀ ਤਰੈ ॥
ਹਰਿ ਕੋ ਨਾਮੁ ਕੋਟਿ ਪਾਪ ਪਰਹਰੈ ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਮਨ ਮੇਰੇ ॥
ਨਾਨਕ ਪਾਵਹੁ ਸੂਖ ਘਨੇਰੇ ॥1॥
ਸਗਲ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਕੋ ਰਾਜਾ ਦੁਖੀਆ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਹੋਇ ਸੁਖੀਆ ॥
ਲਾਖ ਕਰੋਰੀ ਬੰਧੁ ਨ ਪਰੈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਨਿਸਤਰੈ ॥
ਅਨਿਕ ਮਾਇਆ ਰੰਗ ਤਿਖ ਨ ਬੁਝਾਵੈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਆਘਾਵੈ ॥
ਜਿਹ ਮਾਰਗਿ ਇਹੁ ਜਾਤ ਇਕੇਲਾ ॥
ਤਹ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸੰਗਿ ਹੋਤ ਸੁਹੇਲਾ ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਮਨ ਸਦਾ ਧਿਆਈਐ ॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਈਐ ॥2॥
ਛੂਟਤ ਨਹੀ ਕੋਟਿ ਲਖ ਬਾਹੀ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਤਹ ਪਾਰਿ ਪਰਾਹੀ ॥
ਅਨਿਕ ਬਿਘਨ ਜਹ ਆਇ ਸੰਘਾਰੈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਤਤਕਾਲ ਉਧਾਰੈ ॥
ਅਨਿਕ ਜੋਨਿ ਜਨਮੈ ਮਰਿ ਜਾਮ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਪਾਵੈ ਬਿਸ੍ਰਾਮ ॥
ਹਉ ਮੈਲਾ ਮਲੁ ਕਬਹੁ ਨ ਧੋਵੈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਕੋਟਿ ਪਾਪ ਖੋਵੈ ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਮਨ ਰੰਗਿ ॥
ਨਾਨਕ ਪਾਈਐ ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥3॥
ਜਿਹ ਮਾਰਗ ਕੇ ਗਨੇ ਜਾਹਿ ਨ ਕੋਸਾ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਊਹਾ ਸੰਗਿ ਤੋਸਾ ॥
ਜਿਹ ਪੈਡੈ ਮਹਾ ਅੰਧ ਗੁਬਾਰਾ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਸੰਗਿ ਉਜੀਆਰਾ ॥
ਜਹਾ ਪੰਥਿ ਤੇਰਾ ਕੋ ਨ ਸਿਞਾਨੂ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਤਹ ਨਾਲਿ ਪਛਾਨੂ ॥
ਜਹ ਮਹਾ ਭਇਆਨ ਤਪਤਿ ਬਹੁ ਘਾਮ ॥
ਤਹ ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਕੀ ਤੁਮ ਊਪਰਿ ਛਾਮ ॥
ਜਹਾ ਤ੍ਰਿਖਾ ਮਨ ਤੁਝੁ ਆਕਰਖੈ ॥
ਤਹ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਰਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਬਰਖੈ ॥4॥
ਭਗਤ ਜਨਾ ਕੀ ਬਰਤਨਿ ਨਾਮੁ ॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕੈ ਮਨਿ ਬਿਸ੍ਰਾਮੁ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਦਾਸ ਕੀ ਓਟ ॥
ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਉਧਰੇ ਜਨ ਕੋਟਿ ॥
ਹਰਿ ਜਸੁ ਕਰਤ ਸੰਤ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਅਉਖਧੁ ਸਾਧ ਕਮਾਤਿ ॥
ਹਰਿ ਜਨ ਕੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮਿ ਜਨ ਕੀਨੋ ਦਾਨ ॥
ਮਨ ਤਨ ਰੰਗਿ ਰਤੇ ਰੰਗ ਏਕੈ ॥
ਨਾਨਕ ਜਨ ਕੈ ਬਿਰਤਿ ਬਿਬੇਕੈ ॥5॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਨ ਕਉ ਮੁਕਤਿ ਜੁਗਤਿ ॥
ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਜਨ ਕਉ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਭੁਗਤਿ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਨ ਕਾ ਰੂਪ ਰੰਗੁ ॥
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਕਬ ਪਰੈ ਨ ਭੰਗੁ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਨ ਕੀ ਵਡਿਆਈ ॥
ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਮਿ ਜਨ ਸੋਭਾ ਪਾਈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਨ ਕਉ ਭੋਗ ਜੋਗ ॥
ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਕਛੁ ਨਾਹਿ ਬਿਓਗੁ ॥
ਜਨੁ ਰਾਤਾ ਹਰਿ ਨਾਮ ਕੀ ਸੇਵਾ ॥
ਨਾਨਕ ਪੂਜੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਦੇਵਾ ॥6॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਨ ਕੈ ਮਾਲੁ ਖਜੀਨਾ ॥
ਹਰਿ ਧਨੁ ਜਨ ਕਉ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭਿ ਦੀਨਾ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਨ ਕੈ ਓਟ ਸਤਾਣੀ ॥
ਹਰਿ ਪ੍ਰਤਾਪਿ ਜਨ ਅਵਰ ਨ ਜਾਣੀ ॥
ਓਤਿ ਪੋਤਿ ਜਨ ਹਰਿ ਰਸਿ ਰਾਤੇ ॥
ਸੁੰਨ ਸਮਾਧਿ ਨਾਮ ਰਸ ਮਾਤੇ ॥
ਆਠ ਪਹਰ ਜਨੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਪੈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਭਗਤੁ ਪ੍ਰਗਟ ਨਹੀ ਛਪੈ ॥
ਹਰਿ ਕੀ ਭਗਤਿ ਮੁਕਤਿ ਬਹੁ ਕਰੇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਨ ਸੰਗਿ ਕੇਤੇ ਤਰੇ ॥7॥
ਪਾਰਜਾਤੁ ਇਹੁ ਹਰਿ ਕੋ ਨਾਮ ॥
ਕਾਮਧੇਨ ਹਰਿ ਹਰਿ ਗੁਣ ਗਾਮ ॥
ਸਭ ਤੇ ਊਤਮ ਹਰਿ ਕੀ ਕਥਾ ॥
ਨਾਮੁ ਸੁਨਤ ਦਰਦ ਦੁਖ ਲਥਾ ॥
ਨਾਮ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਸੰਤ ਰਿਦ ਵਸੈ ॥
ਸੰਤ ਪ੍ਰਤਾਪਿ ਦੁਰਤੁ ਸਭੁ ਨਸੈ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਸੰਗੁ ਵਡਭਾਗੀ ਪਾਈਐ ॥
ਸੰਤ ਕੀ ਸੇਵਾ ਨਾਮੁ ਧਿਆਈਐ ॥
ਨਾਮ ਤੁਲਿ ਕਛੁ ਅਵਰੁ ਨ ਹੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਪਾਵੈ ਜਨੁ ਕੋਇ ॥8॥2॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਬਹੁ ਸਾਸਤ੍ਰ ਬਹੁ ਸਿਮ੍ਰਿਤੀ ਪੇਖੇ ਸਰਬ ਢਢੋਲਿ ॥
ਪੂਜਸਿ ਨਾਹੀ ਹਰਿ ਹਰੇ ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਅਮੋਲ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਜਾਪ ਤਾਪ ਗਿਆਨ ਸਭਿ ਧਿਆਨ ॥
ਖਟ ਸਾਸਤ੍ਰ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਵਖਿਆਨ ॥
ਜੋਗ ਅਭਿਆਸ ਕਰਮ ਧ੍ਰਮ ਕਿਰਿਆ ॥
ਸਗਲ ਤਿਆਗਿ ਬਨ ਮਧੇ ਫਿਰਿਆ ॥
ਅਨਿਕ ਪ੍ਰਕਾਰ ਕੀਏ ਬਹੁ ਜਤਨਾ ॥
ਪੁੰਨ ਦਾਨ ਹੋਮੇ ਬਹੁ ਰਤਨਾ ॥
ਸਰੀਰੁ ਕਟਾਇ ਹੋਮੈ ਕਰਿ ਰਾਤੀ ॥
ਵਰਤ ਨੇਮ ਕਰੈ ਬਹੁ ਭਾਤੀ ॥
ਨਹੀ ਤੁਲਿ ਰਾਮ ਨਾਮ ਬੀਚਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਜਪੀਐ ਇਕ ਬਾਰ ॥1॥
ਨਉ ਖੰਡ ਪ੍ਰਿਥਮੀ ਫਿਰੈ ਚਿਰੁ ਜੀਵੈ ॥
ਮਹਾ ਉਦਾਸੁ ਤਪੀਸਰੁ ਥੀਵੈ ॥
ਅਗਨਿ ਮਾਹਿ ਹੋਮਤ ਪਰਾਨ ॥
ਕਨਿਕ ਅਸ੍ਵ ਹੈਵਰ ਭੂਮਿ ਦਾਨ ॥
ਨਿਉਲੀ ਕਰਮ ਕਰੈ ਬਹੁ ਆਸਨ ॥
ਜੈਨ ਮਾਰਗ ਸੰਜਮ ਅਤਿ ਸਾਧਨ ॥
ਨਿਮਖ ਨਿਮਖ ਕਰਿ ਸਰੀਰੁ ਕਟਾਵੈ ॥
ਤਉ ਭੀ ਹਉਮੈ ਮੈਲੁ ਨ ਜਾਵੈ ॥
ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਸਮਸਰਿ ਕਛੁ ਨਾਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਗਤਿ ਪਾਹਿ ॥2॥
ਮਨ ਕਾਮਨਾ ਤੀਰਥ ਦੇਹ ਛੁਟੈ ॥
ਗਰਬੁ ਗੁਮਾਨੁ ਨ ਮਨ ਤੇ ਹੁਟੈ ॥
ਸੋਚ ਕਰੈ ਦਿਨਸੁ ਅਰੁ ਰਾਤਿ ॥
ਮਨ ਕੀ ਮੈਲੁ ਨ ਤਨ ਤੇ ਜਾਤਿ ॥
ਇਸੁ ਦੇਹੀ ਕਉ ਬਹੁ ਸਾਧਨਾ ਕਰੈ ॥
ਮਨ ਤੇ ਕਬਹੂ ਨ ਬਿਖਿਆ ਟਰੈ ॥
ਜਲਿ ਧੋਵੈ ਬਹੁ ਦੇਹ ਅਨੀਤਿ ॥
ਸੁਧ ਕਹਾ ਹੋਇ ਕਾਚੀ ਭੀਤਿ ॥
ਮਨ ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਊਚ ॥
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਉਧਰੇ ਪਤਿਤ ਬਹੁ ਮੂਚ ॥3॥
ਬਹੁਤੁ ਸਿਆਣਪ ਜਮ ਕਾ ਭਉ ਬਿਆਪੈ ॥
ਅਨਿਕ ਜਤਨ ਕਰਿ ਤ੍ਰਿਸਨ ਨਾ ਧ੍ਰਾਪੈ ॥
ਭੇਖ ਅਨੇਕ ਅਗਨਿ ਨਹੀ ਬੁਝੈ ॥
ਕੋਟਿ ਉਪਾਵ ਦਰਗਹ ਨਹੀ ਸਿਝੈ ॥
ਛੂਟਸਿ ਨਾਹੀ ਊਭ ਪਇਆਲਿ ॥
ਮੋਹਿ ਬਿਆਪਹਿ ਮਾਇਆ ਜਾਲਿ ॥
ਅਵਰ ਕਰਤੂਤਿ ਸਗਲੀ ਜਮੁ ਡਾਨੈ ॥
ਗੋਵਿੰਦ ਭਜਨ ਬਿਨੁ ਤਿਲੁ ਨਹੀ ਮਾਨੈ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਦੁਖੁ ਜਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਬੋਲੈ ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ॥4॥
ਚਾਰਿ ਪਦਾਰਥ ਜੇ ਕੋ ਮਾਗੈ ॥
ਸਾਧ ਜਨਾ ਕੀ ਸੇਵਾ ਲਾਗੈ ॥
ਜੇ ਕੋ ਆਪੁਨਾ ਦੂਖੁ ਮਿਟਾਵੈ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਰਿਦੈ ਸਦ ਗਾਵੈ ॥
ਜੇ ਕੋ ਅਪੁਨੀ ਸੋਭਾ ਲੋਰੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਇਹ ਹਉਮੈ ਛੋਰੈ ॥
ਜੇ ਕੋ ਜਨਮ ਮਰਣ ਤੇ ਡਰੈ ॥
ਸਾਧ ਜਨਾ ਕੀ ਸਰਨੀ ਪਰੈ ॥
ਜਿਸੁ ਜਨ ਕਉ ਪ੍ਰਭ ਦਰਸ ਪਿਆਸਾ ॥
ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੈ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਸਾ ॥5॥
ਸਗਲ ਪੁਰਖ ਮਹਿ ਪੁਰਖੁ ਪ੍ਰਧਾਨੁ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਜਾ ਕਾ ਮਿਟੈ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
ਆਪਸ ਕਉ ਜੋ ਜਾਣੈ ਨੀਚਾ ॥
ਸੋਊ ਗਨੀਐ ਸਭ ਤੇ ਊਚਾ ॥
ਜਾ ਕਾ ਮਨੁ ਹੋਇ ਸਗਲ ਕੀ ਰੀਨਾ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਤਿਨਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਚੀਨਾ ॥
ਮਨ ਅਪੁਨੇ ਤੇ ਬੁਰਾ ਮਿਟਾਨਾ ॥
ਪੇਖੈ ਸਗਲ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸਾਜਨਾ ॥
ਸੂਖ ਦੂਖ ਜਨ ਸਮ ਦ੍ਰਿਸਟੇਤਾ ॥
ਨਾਨਕ ਪਾਪ ਪੁੰਨ ਨਹੀ ਲੇਪਾ ॥6॥
ਨਿਰਧਨ ਕਉ ਧਨੁ ਤੇਰੋ ਨਾਉ ॥
ਨਿਥਾਵੇ ਕਉ ਨਾਉ ਤੇਰਾ ਥਾਉ ॥
ਨਿਮਾਨੇ ਕਉ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰੋ ਮਾਨੁ ॥
ਸਗਲ ਘਟਾ ਕਉ ਦੇਵਹੁ ਦਾਨੁ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨਹਾਰ ਸੁਆਮੀ ॥
ਸਗਲ ਘਟਾ ਕੇ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ॥
ਅਪਨੀ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਜਾਨਹੁ ਆਪੇ ॥
ਆਪਨ ਸੰਗਿ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭ ਰਾਤੇ ॥
ਤੁਮ੍ਰੀ ਉਸਤਤਿ ਤੁਮ ਤੇ ਹੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਅਵਰੁ ਨ ਜਾਨਸਿ ਕੋਇ ॥7॥
ਸਰਬ ਧਰਮ ਮਹਿ ਸ੍ਰੇਸਟ ਧਰਮੁ ॥
ਹਰਿ ਕੋ ਨਾਮੁ ਜਪਿ ਨਿਰਮਲ ਕਰਮੁ ॥
ਸਗਲ ਕ੍ਰਿਆ ਮਹਿ ਊਤਮ ਕਿਰਿਆ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਦੁਰਮਤਿ ਮਲੁ ਹਿਰਿਆ ॥
ਸਗਲ ਉਦਮ ਮਹਿ ਉਦਮੁ ਭਲਾ ॥
ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਜੀਅ ਸਦਾ ॥
ਸਗਲ ਬਾਨੀ ਮਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਾਨੀ ॥
ਹਰਿ ਕੋ ਜਸੁ ਸੁਨਿ ਰਸਨ ਬਖਾਨੀ ॥
ਸਗਲ ਥਾਨ ਤੇ ਓਹੁ ਊਤਮ ਥਾਨੁ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਹ ਘਟਿ ਵਸੈ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥8॥3॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਨਿਰਗੁਨੀਆਰ ਇਆਨਿਆ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਦਾ ਸਮਾਲਿ ॥
ਜਿਨਿ ਕੀਆ ਤਿਸੁ ਚੀਤਿ ਰਖੁ ਨਾਨਕ ਨਿਬਹੀ ਨਾਲਿ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਰਮਈਆ ਕੇ ਗੁਨ ਚੇਤਿ ਪਰਾਨੀ ॥
ਕਵਨ ਮੂਲ ਤੇ ਕਵਨ ਦ੍ਰਿਸਟਾਨੀ ॥
ਜਿਨਿ ਤੂੰ ਸਾਜਿ ਸਵਾਰਿ ਸੀਗਾਰਿਆ ॥
ਗਰਭ ਅਗਨਿ ਮਹਿ ਜਿਨਹਿ ਉਬਾਰਿਆ ॥
ਬਾਰ ਬਿਵਸਥਾ ਤੁਝਹਿ ਪਿਆਰੈ ਦੂਧ ॥
ਭਰਿ ਜੋਬਨ ਭੋਜਨ ਸੁਖ ਸੂਧ ॥
ਬਿਰਧਿ ਭਇਆ ਊਪਰਿ ਸਾਕ ਸੈਨ ॥
ਮੁਖਿ ਅਪਿਆਉ ਬੈਠ ਕਉ ਦੈਨ ॥
ਇਹੁ ਨਿਰਗੁਨੁ ਗੁਨੁ ਕਛੂ ਨ ਬੂਝੈ ॥
ਬਖਸਿ ਲੇਹੁ ਤਉ ਨਾਨਕ ਸੀਝੈ ॥1॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਧਰ ਊਪਰਿ ਸੁਖਿ ਬਸਹਿ ॥
ਸੁਤ ਭ੍ਰਾਤ ਮੀਤ ਬਨਿਤਾ ਸੰਗਿ ਹਸਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪੀਵਹਿ ਸੀਤਲ ਜਲਾ ॥
ਸੁਖਦਾਈ ਪਵਨੁ ਪਾਵਕੁ ਅਮੁਲਾ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਭੋਗਹਿ ਸਭਿ ਰਸਾ ॥
ਸਗਲ ਸਮਗ੍ਰੀ ਸੰਗਿ ਸਾਥਿ ਬਸਾ ॥
ਦੀਨੇ ਹਸਤ ਪਾਵ ਕਰਨ ਨੇਤ੍ਰ ਰਸਨਾ ॥
ਤਿਸਹਿ ਤਿਆਗਿ ਅਵਰ ਸੰਗਿ ਰਚਨਾ ॥
ਐਸੇ ਦੋਖ ਮੂੜ ਅੰਧ ਬਿਆਪੇ ॥
ਨਾਨਕ ਕਾਢਿ ਲੇਹੁ ਪ੍ਰਭ ਆਪੇ ॥2॥
ਆਦਿ ਅੰਤਿ ਜੋ ਰਾਖਨਹਾਰੁ ॥
ਤਿਸ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨ ਕਰੈ ਗਵਾਰੁ ॥
ਜਾ ਕੀ ਸੇਵਾ ਨਵ ਨਿਧਿ ਪਾਵੈ ॥
ਤਾ ਸਿਉ ਮੂੜਾ ਮਨੁ ਨਹੀ ਲਾਵੈ ॥
ਜੋ ਠਾਕੁਰੁ ਸਦ ਸਦਾ ਹਜੂਰੇ ॥
ਤਾ ਕਉ ਅੰਧਾ ਜਾਨਤ ਦੂਰੇ ॥
ਜਾ ਕੀ ਟਹਲ ਪਾਵੈ ਦਰਗਹ ਮਾਨੁ ॥
ਤਿਸਹਿ ਬਿਸਾਰੈ ਮੁਗਧੁ ਅਜਾਨੁ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਇਹੁ ਭੂਲਨਹਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕ ਰਾਖਨਹਾਰੁ ਅਪਾਰੁ ॥3॥
ਰਤਨੁ ਤਿਆਗਿ ਕਉਡੀ ਸੰਗਿ ਰਚੈ ॥
ਸਾਚੁ ਛੋਡਿ ਝੂਠ ਸੰਗਿ ਮਚੈ ॥
ਜੋ ਛਡਨਾ ਸੁ ਅਸਥਿਰੁ ਕਰਿ ਮਾਨੈ ॥
ਜੋ ਹੋਵਨੁ ਸੋ ਦੂਰਿ ਪਰਾਨੈ ॥
ਛੋਡਿ ਜਾਇ ਤਿਸ ਕਾ ਸ੍ਰਮੁ ਕਰੈ ॥
ਸੰਗਿ ਸਹਾਈ ਤਿਸੁ ਪਰਹਰੈ ॥
ਚੰਦਨ ਲੇਪੁ ਉਤਾਰੈ ਧੋਇ ॥
ਗਰਧਬ ਪ੍ਰੀਤਿ ਭਸਮ ਸੰਗਿ ਹੋਇ ॥
ਅੰਧ ਕੂਪ ਮਹਿ ਪਤਿਤ ਬਿਕਰਾਲ ॥
ਨਾਨਕ ਕਾਢਿ ਲੇਹੁ ਪ੍ਰਭ ਦਇਆਲ ॥4॥
ਕਰਤੂਤਿ ਪਸੂ ਕੀ ਮਾਨਸ ਜਾਤਿ ॥
ਲੋਕ ਪਚਾਰਾ ਕਰੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥
ਬਾਹਰਿ ਭੇਖ ਅੰਤਰਿ ਮਲੁ ਮਾਇਆ ॥
ਛਪਸਿ ਨਾਹਿ ਕਛੁ ਕਰੈ ਛਪਾਇਆ ॥
ਬਾਹਰਿ ਗਿਆਨ ਧਿਆਨ ਇਸਨਾਨ ॥
ਅੰਤਰਿ ਬਿਆਪੈ ਲੋਭੁ ਸੁਆਨੁ ॥
ਅੰਤਰਿ ਅਗਨਿ ਬਾਹਰਿ ਤਨੁ ਸੁਆਹ ॥
ਗਲਿ ਪਾਥਰ ਕੈਸੇ ਤਰੈ ਅਥਾਹ ॥
ਜਾ ਕੈ ਅੰਤਰਿ ਬਸੈ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਿ ॥
ਨਾਨਕ ਤੇ ਜਨ ਸਹਜਿ ਸਮਾਤਿ ॥5॥
ਸੁਨਿ ਅੰਧਾ ਕੈਸੇ ਮਾਰਗੁ ਪਾਵੈ ॥
ਕਰੁ ਗਹਿ ਲੇਹੁ ਓੜਿ ਨਿਬਹਾਵੈ ॥
ਕਹਾ ਬੁਝਾਰਤਿ ਬੂਝੈ ਡੋਰਾ ॥
ਨਿਸਿ ਕਹੀਐ ਤਉ ਸਮਝੈ ਭੋਰਾ ॥
ਕਹਾ ਬਿਸਨਪਦ ਗਾਵੈ ਗੁੰਗ ॥
ਜਤਨ ਕਰੈ ਤਉ ਭੀ ਸੁਰ ਭੰਗ ॥
ਕਹ ਪਿੰਗੁਲ ਪਰਬਤ ਪਰ ਭਵਨ ॥
ਨਹੀ ਹੋਤ ਊਹਾ ਉਸੁ ਗਵਨ ॥
ਕਰਤਾਰ ਕਰੁਣਾ ਮੈ ਦੀਨੁ ਬੇਨਤੀ ਕਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਤੁਮਰੀ ਕਿਰਪਾ ਤਰੈ ॥6॥
ਸੰਗਿ ਸਹਾਈ ਸੁ ਆਵੈ ਨ ਚੀਤਿ ॥
ਜੋ ਬੈਰਾਈ ਤਾ ਸਿਉ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥
ਬਲੂਆ ਕੇ ਗ੍ਰਿਹ ਭੀਤਰਿ ਬਸੈ ॥
ਅਨਦ ਕੇਲ ਮਾਇਆ ਰੰਗਿ ਰਸੈ ॥
ਦ੍ਰਿੜੁ ਕਰਿ ਮਾਨੈ ਮਨਹਿ ਪ੍ਰਤੀਤਿ ॥
ਕਾਲੁ ਨ ਆਵੈ ਮੂੜੇ ਚੀਤਿ ॥
ਬੈਰ ਬਿਰੋਧ ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਮੋਹ ॥
ਝੂਠ ਬਿਕਾਰ ਮਹਾ ਲੋਭ ਧ੍ਰੋਹ ॥
ਇਆਹੂ ਜੁਗਤਿ ਬਿਹਾਨੇ ਕਈ ਜਨਮ ॥
ਨਾਨਕ ਰਾਖਿ ਲੇਹੁ ਆਪਨ ਕਰਿ ਕਰਮ ॥7॥
ਤੂ ਠਾਕੁਰੁ ਤੁਮ ਪਹਿ ਅਰਦਾਸਿ ॥
ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭੁ ਤੇਰੀ ਰਾਸਿ ॥
ਤੁਮ ਮਾਤ ਪਿਤਾ ਹਮ ਬਾਰਿਕ ਤੇਰੇ ॥
ਤੁਮਰੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਮਹਿ ਸੂਖ ਘਨੇਰੇ ॥
ਕੋਇ ਨ ਜਾਨੈ ਤੁਮਰਾ ਅੰਤੁ ॥
ਊਚੇ ਤੇ ਊਚਾ ਭਗਵੰਤ ॥
ਸਗਲ ਸਮਗ੍ਰੀ ਤੁਮਰੈ ਸੂਤ੍ਰਿ ਧਾਰੀ ॥
ਤੁਮ ਤੇ ਹੋਇ ਸੁ ਆਗਿਆਕਾਰੀ ॥
ਤੁਮਰੀ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਤੁਮ ਹੀ ਜਾਨੀ ॥
ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਸਦਾ ਕੁਰਬਾਨੀ ॥8॥4॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਦੇਨਹਾਰੁ ਪ੍ਰਭ ਛੋਡਿ ਕੈ ਲਾਗਹਿ ਆਨ ਸੁਆਇ ॥
ਨਾਨਕ ਕਹੂ ਨ ਸੀਝਈ ਬਿਨੁ ਨਾਵੈ ਪਤਿ ਜਾਇ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਦਸ ਬਸਤੂ ਲੇ ਪਾਛੈ ਪਾਵੈ ॥
ਏਕ ਬਸਤੁ ਕਾਰਨਿ ਬਿਖੋਟਿ ਗਵਾਵੈ ॥
ਏਕ ਭੀ ਨ ਦੇਇ ਦਸ ਭੀ ਹਿਰਿ ਲੇਇ ॥
ਤਉ ਮੂੜਾ ਕਹੁ ਕਹਾ ਕਰੇਇ ॥
ਜਿਸੁ ਠਾਕੁਰ ਸਿਉ ਨਾਹੀ ਚਾਰਾ ॥
ਤਾ ਕਉ ਕੀਜੈ ਸਦ ਨਮਸਕਾਰਾ ॥
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਲਾਗਾ ਪ੍ਰਭੁ ਮੀਠਾ ॥
ਸਰਬ ਸੂਖ ਤਾਹੂ ਮਨਿ ਵੂਠਾ ॥
ਜਿਸੁ ਜਨ ਅਪਨਾ ਹੁਕਮੁ ਮਨਾਇਆ ॥
ਸਰਬ ਥੋਕ ਨਾਨਕ ਤਿਨਿ ਪਾਇਆ ॥1॥
ਅਗਨਤ ਸਾਹੁ ਅਪਨੀ ਦੇ ਰਾਸਿ ॥
ਖਾਤ ਪੀਤ ਬਰਤੈ ਅਨਦ ਉਲਾਸਿ ॥
ਅਪੁਨੀ ਅਮਾਨ ਕਛੁ ਬਹੁਰਿ ਸਾਹੁ ਲੇਇ ॥
ਅਗਿਆਨੀ ਮਨਿ ਰੋਸੁ ਕਰੇਇ ॥
ਅਪਨੀ ਪਰਤੀਤਿ ਆਪ ਹੀ ਖੋਵੈ ॥
ਬਹੁਰਿ ਉਸ ਕਾ ਬਿਸ੍ਵਾਸੁ ਨ ਹੋਵੈ ॥
ਜਿਸ ਕੀ ਬਸਤੁ ਤਿਸੁ ਆਗੈ ਰਾਖੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਆਗਿਆ ਮਾਨੈ ਮਾਥੈ ॥
ਉਸ ਤੇ ਚਉਗੁਨ ਕਰੈ ਨਿਹਾਲੁ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬੁ ਸਦਾ ਦਇਆਲੁ ॥2॥
ਅਨਿਕ ਭਾਤਿ ਮਾਇਆ ਕੇ ਹੇਤ ॥
ਸਰਪਰ ਹੋਵਤ ਜਾਨੁ ਅਨੇਤ ॥
ਬਿਰਖ ਕੀ ਛਾਇਆ ਸਿਉ ਰੰਗੁ ਲਾਵੈ ॥
ਓਹ ਬਿਨਸੈ ਉਹੁ ਮਨਿ ਪਛੁਤਾਵੈ ॥
ਜੋ ਦੀਸੈ ਸੋ ਚਾਲਨਹਾਰੁ ॥
ਲਪਟਿ ਰਹਿਓ ਤਹ ਅੰਧ ਅੰਧਾਰੁ ॥
ਬਟਾਊ ਸਿਉ ਜੋ ਲਾਵੈ ਨੇਹ ॥
ਤਾ ਕਉ ਹਾਥਿ ਨ ਆਵੈ ਕੇਹ ॥
ਮਨ ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਕੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਸੁਖਦਾਈ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਨਾਨਕ ਆਪਿ ਲਏ ਲਾਈ ॥3॥
ਮਿਥਿਆ ਤਨੁ ਧਨੁ ਕੁਟੰਬੁ ਸਬਾਇਆ ॥
ਮਿਥਿਆ ਹਉਮੈ ਮਮਤਾ ਮਾਇਆ ॥
ਮਿਥਿਆ ਰਾਜ ਜੋਬਨ ਧਨ ਮਾਲ ॥
ਮਿਥਿਆ ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਬਿਕਰਾਲ ॥
ਮਿਥਿਆ ਰਥ ਹਸਤੀ ਅਸ੍ਵ ਬਸਤ੍ਰਾ ॥
ਮਿਥਿਆ ਰੰਗ ਸੰਗਿ ਮਾਇਆ ਪੇਖਿ ਹਸਤਾ ॥
ਮਿਥਿਆ ਧ੍ਰੋਹ ਮੋਹ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
ਮਿਥਿਆ ਆਪਸ ਊਪਰਿ ਕਰਤ ਗੁਮਾਨੁ ॥
ਅਸਥਿਰੁ ਭਗਤਿ ਸਾਧ ਕੀ ਸਰਨ ॥
ਨਾਨਕ ਜਪਿ ਜਪਿ ਜੀਵੈ ਹਰਿ ਕੇ ਚਰਨ ॥4॥
ਮਿਥਿਆ ਸ੍ਰਵਨ ਪਰ ਨਿੰਦਾ ਸੁਨਹਿ ॥
ਮਿਥਿਆ ਹਸਤ ਪਰ ਦਰਬ ਕਉ ਹਿਰਹਿ ॥
ਮਿਥਿਆ ਨੇਤ੍ਰ ਪੇਖਤ ਪਰ ਤ੍ਰਿਅ ਰੂਪਾਦ ॥
ਮਿਥਿਆ ਰਸਨਾ ਭੋਜਨ ਅਨ ਸ੍ਵਾਦ ॥
ਮਿਥਿਆ ਚਰਨ ਪਰ ਬਿਕਾਰ ਕਉ ਧਾਵਹਿ ॥
ਮਿਥਿਆ ਮਨ ਪਰ ਲੋਭ ਲੁਭਾਵਹਿ ॥
ਮਿਥਿਆ ਤਨ ਨਹੀ ਪਰਉਪਕਾਰਾ ॥
ਮਿਥਿਆ ਬਾਸੁ ਲੇਤ ਬਿਕਾਰਾ ॥
ਬਿਨੁ ਬੂਝੇ ਮਿਥਿਆ ਸਭ ਭਏ ॥
ਸਫਲ ਦੇਹ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮ ਲਏ ॥5॥
ਬਿਰਥੀ ਸਾਕਤ ਕੀ ਆਰਜਾ ॥
ਸਾਚ ਬਿਨਾ ਕਹ ਹੋਵਤ ਸੂਚਾ ॥
ਬਿਰਥਾ ਨਾਮ ਬਿਨਾ ਤਨੁ ਅੰਧ ॥
ਮੁਖਿ ਆਵਤ ਤਾ ਕੈ ਦੁਰਗੰਧ ॥
ਬਿਨੁ ਸਿਮਰਨ ਦਿਨੁ ਰੈਨਿ ਬ੍ਰਿਥਾ ਬਿਹਾਇ ॥
ਮੇਘ ਬਿਨਾ ਜਿਉ ਖੇਤੀ ਜਾਇ ॥
ਗੋਬਿਦ ਭਜਨ ਬਿਨੁ ਬ੍ਰਿਥੇ ਸਭ ਕਾਮ ॥
ਜਿਉ ਕਿਰਪਨ ਕੇ ਨਿਰਾਰਥ ਦਾਮ ॥
ਧੰਨਿ ਧੰਨਿ ਤੇ ਜਨ ਜਿਹ ਘਟਿ ਬਸਿਓ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥
ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੈ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਉ ॥6॥
ਰਹਤ ਅਵਰ ਕਛੁ ਅਵਰ ਕਮਾਵਤ ॥
ਮਨਿ ਨਹੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਮੁਖਹੁ ਗੰਢ ਲਾਵਤ ॥
ਜਾਨਨਹਾਰ ਪ੍ਰਭੂ ਪਰਬੀਨ ॥
ਬਾਹਰਿ ਭੇਖ ਨ ਕਾਹੂ ਭੀਨ ॥
ਅਵਰ ਉਪਦੇਸੈ ਆਪਿ ਨ ਕਰੈ ॥
ਆਵਤ ਜਾਵਤ ਜਨਮੈ ਮਰੈ ॥
ਜਿਸ ਕੈ ਅੰਤਰਿ ਬਸੈ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
ਤਿਸ ਕੀ ਸੀਖ ਤਰੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
ਜੋ ਤੁਮ ਭਾਨੇ ਤਿਨ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਤਾ ॥
ਨਾਨਕ ਉਨ ਜਨ ਚਰਨ ਪਰਾਤਾ ॥7॥
ਕਰਉ ਬੇਨਤੀ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਸਭੁ ਜਾਨੈ ॥
ਅਪਨਾ ਕੀਆ ਆਪਹਿ ਮਾਨੈ ॥
ਆਪਹਿ ਆਪ ਆਪਿ ਕਰਤ ਨਿਬੇਰਾ ॥
ਕਿਸੈ ਦੂਰਿ ਜਨਾਵਤ ਕਿਸੈ ਬੁਝਾਵਤ ਨੇਰਾ ॥
ਉਪਾਵ ਸਿਆਨਪ ਸਗਲ ਤੇ ਰਹਤ ॥
ਸਭੁ ਕਛੁ ਜਾਨੈ ਆਤਮ ਕੀ ਰਹਤ ॥
ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਲਏ ਲੜਿ ਲਾਇ ॥
ਥਾਨ ਥਨੰਤਰਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਜਿਸੁ ਕਿਰਪਾ ਕਰੀ ॥
ਨਿਮਖ ਨਿਮਖ ਜਪਿ ਨਾਨਕ ਹਰੀ ॥8॥5॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਕਾਮ ਕ੍ਰੋਧ ਅਰੁ ਲੋਭ ਮੋਹ ਬਿਨਸਿ ਜਾਇ ਅਹੰਮੇਵ ॥
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਸਰਣਾਗਤੀ ਕਰਿ ਪ੍ਰਸਾਦੁ ਗੁਰਦੇਵ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਛਤੀਹ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਖਾਹਿ ॥
ਤਿਸੁ ਠਾਕੁਰ ਕਉ ਰਖੁ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੁਗੰਧਤ ਤਨਿ ਲਾਵਹਿ ॥
ਤਿਸ ਕਉ ਸਿਮਰਤ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਵਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਬਸਹਿ ਸੁਖ ਮੰਦਰਿ ॥
ਤਿਸਹਿ ਧਿਆਇ ਸਦਾ ਮਨ ਅੰਦਰਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਗ੍ਰਿਹ ਸੰਗਿ ਸੁਖ ਬਸਨਾ ॥
ਆਠ ਪਹਰ ਸਿਮਰਹੁ ਤਿਸੁ ਰਸਨਾ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਰੰਗ ਰਸ ਭੋਗ ॥
ਨਾਨਕ ਸਦਾ ਧਿਆਈਐ ਧਿਆਵਨ ਜੋਗ ॥1॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪਾਟ ਪਟੰਬਰ ਹਢਾਵਹਿ ॥
ਤਿਸਹਿ ਤਿਆਗਿ ਕਤ ਅਵਰ ਲੁਭਾਵਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੁਖਿ ਸੇਜ ਸੋਈਜੈ ॥
ਮਨ ਆਠ ਪਹਰ ਤਾ ਕਾ ਜਸੁ ਗਾਵੀਜੈ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੁਝੁ ਸਭੁ ਕੋਊ ਮਾਨੈ ॥
ਮੁਖਿ ਤਾ ਕੋ ਜਸੁ ਰਸਨ ਬਖਾਨੈ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰੋ ਰਹਤਾ ਧਰਮੁ ॥
ਮਨ ਸਦਾ ਧਿਆਇ ਕੇਵਲ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ॥
ਪ੍ਰਭ ਜੀ ਜਪਤ ਦਰਗਹ ਮਾਨੁ ਪਾਵਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਪਤਿ ਸੇਤੀ ਘਰਿ ਜਾਵਹਿ ॥2॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਆਰੋਗ ਕੰਚਨ ਦੇਹੀ ॥
ਲਿਵ ਲਾਵਹੁ ਤਿਸੁ ਰਾਮ ਸਨੇਹੀ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰਾ ਓਲਾ ਰਹਤ ॥
ਮਨ ਸੁਖੁ ਪਾਵਹਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਕਹਤ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰੇ ਸਗਲ ਛਿਦ੍ਰ ਢਾਕੇ ॥
ਮਨ ਸਰਨੀ ਪਰੁ ਠਾਕੁਰ ਪ੍ਰਭ ਤਾ ਕੈ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੁਝੁ ਕੋ ਨ ਪਹੂਚੈ ॥
ਮਨ ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਸਿਮਰਹੁ ਪ੍ਰਭ ਊਚੇ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪਾਈ ਦ੍ਰੁਲਭ ਦੇਹ ॥
ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੀ ਭਗਤਿ ਕਰੇਹ ॥3॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਆਭੂਖਨ ਪਹਿਰੀਜੈ ॥
ਮਨ ਤਿਸੁ ਸਿਮਰਤ ਕਿਉ ਆਲਸੁ ਕੀਜੈ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਅਸ੍ਵ ਹਸਤਿ ਅਸਵਾਰੀ ॥
ਮਨ ਤਿਸੁ ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਕਬਹੂ ਨ ਬਿਸਾਰੀ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਬਾਗ ਮਿਲਖ ਧਨਾ ॥
ਰਾਖੁ ਪਰੋਇ ਪ੍ਰਭੁ ਅਪੁਨੇ ਮਨਾ ॥
ਜਿਨਿ ਤੇਰੀ ਮਨ ਬਨਤ ਬਨਾਈ ॥
ਊਠਤ ਬੈਠਤ ਸਦ ਤਿਸਹਿ ਧਿਆਈ ॥
ਤਿਸਹਿ ਧਿਆਇ ਜੋ ਏਕ ਅਲਖੈ ॥
ਈਹਾ ਊਹਾ ਨਾਨਕ ਤੇਰੀ ਰਖੈ ॥4॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਕਰਹਿ ਪੁੰਨ ਬਹੁ ਦਾਨ ॥
ਮਨ ਆਠ ਪਹਰ ਕਰਿ ਤਿਸ ਕਾ ਧਿਆਨ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੂ ਆਚਾਰ ਬਿਉਹਾਰੀ ॥
ਤਿਸੁ ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਚਿਤਾਰੀ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰਾ ਸੁੰਦਰ ਰੂਪੁ ॥
ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਿਮਰਹੁ ਸਦਾ ਅਨੂਪੁ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰੀ ਨੀਕੀ ਜਾਤਿ ॥
ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਿਮਰਿ ਸਦਾ ਦਿਨ ਰਾਤਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰੀ ਪਤਿ ਰਹੈ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਜਸੁ ਕਹੈ ॥5॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੁਨਹਿ ਕਰਨ ਨਾਦ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪੇਖਹਿ ਬਿਸਮਾਦ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਬੋਲਹਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸਨਾ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੁਖਿ ਸਹਜੇ ਬਸਨਾ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਹਸਤ ਕਰ ਚਲਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੰਪੂਰਨ ਫਲਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਵਹਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਹਿ ॥
ਐਸਾ ਪ੍ਰਭੁ ਤਿਆਗਿ ਅਵਰ ਕਤ ਲਾਗਹੁ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਜਾਗਹੁ ॥6॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੂੰ ਪ੍ਰਗਟੁ ਸੰਸਾਰਿ ॥
ਤਿਸੁ ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਮੂਲਿ ਨ ਮਨਹੁ ਬਿਸਾਰਿ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰਾ ਪਰਤਾਪੁ ॥
ਰੇ ਮਨ ਮੂੜ ਤੂ ਤਾ ਕਉ ਜਾਪੁ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੇਰੇ ਕਾਰਜ ਪੂਰੇ ॥
ਤਿਸਹਿ ਜਾਨੁ ਮਨ ਸਦਾ ਹਜੂਰੇ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੂੰ ਪਾਵਹਿ ਸਾਚੁ ॥
ਰੇ ਮਨ ਮੇਰੇ ਤੂੰ ਤਾ ਸਿਉ ਰਾਚੁ ॥
ਜਿਹ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸਭ ਕੀ ਗਤਿ ਹੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਾਪੁ ਜਪੈ ਜਪੁ ਸੋਇ ॥7॥
ਆਪਿ ਜਪਾਏ ਜਪੈ ਸੋ ਨਾਉ ॥
ਆਪਿ ਗਾਵਾਏ ਸੁ ਹਰਿ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਹੋਇ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ॥
ਪ੍ਰਭੂ ਦਇਆ ਤੇ ਕਮਲ ਬਿਗਾਸੁ ॥
ਪ੍ਰਭ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਬਸੈ ਮਨਿ ਸੋਇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਦਇਆ ਤੇ ਮਤਿ ਊਤਮ ਹੋਇ ॥
ਸਰਬ ਨਿਧਾਨ ਪ੍ਰਭ ਤੇਰੀ ਮਇਆ ॥
ਆਪਹੁ ਕਛੂ ਨ ਕਿਨਹੂ ਲਇਆ ॥
ਜਿਤੁ ਜਿਤੁ ਲਾਵਹੁ ਤਿਤੁ ਲਗਹਿ ਹਰਿ ਨਾਥ ॥
ਨਾਨਕ ਇਨ ਕੈ ਕਛੂ ਨ ਹਾਥ ॥8॥6॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਅਗਮ ਅਗਾਧਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਸੋਇ ॥
ਜੋ ਜੋ ਕਹੈ ਸੁ ਮੁਕਤਾ ਹੋਇ ॥
ਸੁਨਿ ਮੀਤਾ ਨਾਨਕੁ ਬਿਨਵੰਤਾ ॥
ਸਾਧ ਜਨਾ ਕੀ ਅਚਰਜ ਕਥਾ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮੁਖ ਊਜਲ ਹੋਤ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਮਲੁ ਸਗਲੀ ਖੋਤ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਿਟੈ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਪ੍ਰਗਟੈ ਸੁਗਿਆਨੁ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਬੁਝੈ ਪ੍ਰਭੁ ਨੇਰਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਸਭੁ ਹੋਤ ਨਿਬੇਰਾ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਪਾਏ ਨਾਮ ਰਤਨੁ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਏਕ ਊਪਰਿ ਜਤਨੁ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਬਰਨੈ ਕਉਨੁ ਪ੍ਰਾਨੀ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਧ ਕੀ ਸੋਭਾ ਪ੍ਰਭ ਮਾਹਿ ਸਮਾਨੀ ॥1॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਅਗੋਚਰੁ ਮਿਲੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਦਾ ਪਰਫੁਲੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਆਵਹਿ ਬਸਿ ਪੰਚਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਭੁੰਚਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਹੋਇ ਸਭ ਕੀ ਰੇਨ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਨੋਹਰ ਬੈਨ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨ ਕਤਹੂੰ ਧਾਵੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਅਸਥਿਤਿ ਮਨੁ ਪਾਵੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਾਇਆ ਤੇ ਭਿੰਨ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ॥2॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਦੁਸਮਨ ਸਭਿ ਮੀਤ ॥
ਸਾਧੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਹਾ ਪੁਨੀਤ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਕਿਸ ਸਿਉ ਨਹੀ ਬੈਰੁ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨ ਬੀਗਾ ਪੈਰੁ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨਾਹੀ ਕੋ ਮੰਦਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਜਾਨੇ ਪਰਮਾਨੰਦਾ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨਾਹੀ ਹਉ ਤਾਪੁ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਤਜੈ ਸਭੁ ਆਪੁ ॥
ਆਪੇ ਜਾਨੈ ਸਾਧ ਬਡਾਈ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਧ ਪ੍ਰਭੂ ਬਨਿ ਆਈ ॥3॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨ ਕਬਹੂ ਧਾਵੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਪਾਵੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਬਸਤੁ ਅਗੋਚਰ ਲਹੈ ॥
ਸਾਧੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ਅਜਰੁ ਸਹੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਬਸੈ ਥਾਨਿ ਊਚੈ ॥
ਸਾਧੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਹਲਿ ਪਹੂਚੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਦ੍ਰਿੜੈ ਸਭਿ ਧਰਮ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਕੇਵਲ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਪਾਏ ਨਾਮ ਨਿਧਾਨ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਧੂ ਕੈ ਕੁਰਬਾਨ ॥4॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਭ ਕੁਲ ਉਧਾਰੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਸਾਜਨ ਮੀਤ ਕੁਟੰਬ ਨਿਸਤਾਰੈ ॥
ਸਾਧੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸੋ ਧਨੁ ਪਾਵੈ ॥
ਜਿਸੁ ਧਨ ਤੇ ਸਭੁ ਕੋ ਵਰਸਾਵੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਧਰਮ ਰਾਇ ਕਰੇ ਸੇਵਾ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸੋਭਾ ਸੁਰਦੇਵਾ ॥
ਸਾਧੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ਪਾਪ ਪਲਾਇਨ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਗੁਨ ਗਾਇਨ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸ੍ਰਬ ਥਾਨ ਗੰਮਿ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਫਲ ਜਨੰਮ ॥5॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨਹੀ ਕਛੁ ਘਾਲ ॥
ਦਰਸਨੁ ਭੇਟਤ ਹੋਤ ਨਿਹਾਲ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਕਲੂਖਤ ਹਰੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨਰਕ ਪਰਹਰੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਈਹਾ ਊਹਾ ਸੁਹੇਲਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਬਿਛੁਰਤ ਹਰਿ ਮੇਲਾ ॥
ਜੋ ਇਛੈ ਸੋਈ ਫਲੁ ਪਾਵੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨ ਬਿਰਥਾ ਜਾਵੈ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਸਾਧ ਰਿਦ ਬਸੈ ॥
ਨਾਨਕ ਉਧਰੈ ਸਾਧ ਸੁਨਿ ਰਸੈ ॥6॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸੁਨਉ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨ ਮਨ ਤੇ ਬਿਸਰੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਸਰਪਰ ਨਿਸਤਰੈ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਲਗੈ ਪ੍ਰਭੁ ਮੀਠਾ ॥
ਸਾਧੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਡੀਠਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਭਏ ਆਗਿਆਕਾਰੀ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਗਤਿ ਭਈ ਹਮਾਰੀ ॥
ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ਮਿਟੇ ਸਭਿ ਰੋਗ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਧ ਭੇਟੇ ਸੰਜੋਗ ॥7॥
ਸਾਧ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਬੇਦ ਨ ਜਾਨਹਿ ॥
ਜੇਤਾ ਸੁਨਹਿ ਤੇਤਾ ਬਖਿਆਨਹਿ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਉਪਮਾ ਤਿਹੁ ਗੁਣ ਤੇ ਦੂਰਿ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਉਪਮਾ ਰਹੀ ਭਰਪੂਰਿ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਸੋਭਾ ਕਾ ਨਾਹੀ ਅੰਤ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਸੋਭਾ ਸਦਾ ਬੇਅੰਤ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਸੋਭਾ ਊਚ ਤੇ ਊਚੀ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਸੋਭਾ ਮੂਚ ਤੇ ਮੂਚੀ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਸੋਭਾ ਸਾਧ ਬਨਿ ਆਈ ॥
ਨਾਨਕ ਸਾਧ ਪ੍ਰਭ ਭੇਦੁ ਨ ਭਾਈ ॥8॥7॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਮਨਿ ਸਾਚਾ ਮੁਖਿ ਸਾਚਾ ਸੋਇ ॥
ਅਵਰੁ ਨ ਪੇਖੈ ਏਕਸੁ ਬਿਨੁ ਕੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਇਹ ਲਛਣ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਹੋਇ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਦਾ ਨਿਰਲੇਪ ॥
ਜੈਸੇ ਜਲ ਮਹਿ ਕਮਲ ਅਲੇਪ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਦਾ ਨਿਰਦੋਖ ॥
ਜੈਸੇ ਸੂਰੁ ਸਰਬ ਕਉ ਸੋਖ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਸਮਾਨਿ ॥
ਜੈਸੇ ਰਾਜ ਰੰਕ ਕਉ ਲਾਗੈ ਤੁਲਿ ਪਵਾਨ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਧੀਰਜੁ ਏਕ ॥
ਜਿਉ ਬਸੁਧਾ ਕੋਊ ਖੋਦੈ ਕੋਊ ਚੰਦਨ ਲੇਪ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਇਹੈ ਗੁਨਾਉ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਉ ਪਾਵਕ ਕਾ ਸਹਜ ਸੁਭਾਉ ॥1॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਨਿਰਮਲ ਤੇ ਨਿਰਮਲਾ ॥
ਜੈਸੇ ਮੈਲੁ ਨ ਲਾਗੈ ਜਲਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਮਨਿ ਹੋਇ ਪ੍ਰਗਾਸੁ ॥
ਜੈਸੇ ਧਰ ਊਪਰਿ ਆਕਾਸੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਮਿਤ੍ਰ ਸਤ੍ਰੁ ਸਮਾਨਿ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਨਾਹੀ ਅਭਿਮਾਨ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਊਚ ਤੇ ਊਚਾ ॥
ਮਨਿ ਅਪਨੈ ਹੈ ਸਭ ਤੇ ਨੀਚਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸੇ ਜਨ ਭਏ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਨ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਿ ਕਰੇਇ ॥2॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਗਲ ਕੀ ਰੀਨਾ ॥
ਆਤਮ ਰਸੁ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਚੀਨਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਸਭ ਊਪਰਿ ਮਇਆ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਤੇ ਕਛੁ ਬੁਰਾ ਨ ਭਇਆ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਦਾ ਸਮਦਰਸੀ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਬਰਸੀ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਬੰਧਨ ਤੇ ਮੁਕਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਨਿਰਮਲ ਜੁਗਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਭੋਜਨੁ ਗਿਆਨ ॥
ਨਾਨਕ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਬ੍ਰਹਮ ਧਿਆਨੁ ॥3॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਏਕ ਊਪਰਿ ਆਸ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਨਹੀ ਬਿਨਾਸ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਗਰੀਬੀ ਸਮਾਹਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਪਰਉਪਕਾਰ ਉਮਾਹਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਨਾਹੀ ਧੰਧਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਲੇ ਧਾਵਤੁ ਬੰਧਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਹੋਇ ਸੁ ਭਲਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸੁਫਲ ਫਲਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸੰਗਿ ਸਗਲ ਉਧਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਜਪੈ ਸਗਲ ਸੰਸਾਰੁ ॥4॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਏਕੈ ਰੰਗ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਬਸੈ ਪ੍ਰਭੁ ਸੰਗ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਨਾਮੁ ਆਧਾਰੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਨਾਮੁ ਪਰਵਾਰੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਦਾ ਸਦ ਜਾਗਤ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਅਹੰਬੁਧਿ ਤਿਆਗਤ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਮਨਿ ਪਰਮਾਨੰਦ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਘਰਿ ਸਦਾ ਅਨੰਦ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸੁਖ ਸਹਜ ਨਿਵਾਸ ॥
ਨਾਨਕ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਨਹੀ ਬਿਨਾਸ ॥5॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਬ੍ਰਹਮ ਕਾ ਬੇਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਏਕ ਸੰਗਿ ਹੇਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਹੋਇ ਅਚਿੰਤ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਨਿਰਮਲ ਮੰਤ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਜਿਸੁ ਕਰੈ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪਿ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਬਡ ਪਰਤਾਪ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਦਰਸੁ ਬਡਭਾਗੀ ਪਾਈਐ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਉ ਬਲਿ ਬਲਿ ਜਾਈਐ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਉ ਖੋਜਹਿ ਮਹੇਸੁਰ ॥
ਨਾਨਕ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਆਪਿ ਪਰਮੇਸੁਰ ॥6॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਨਾਹਿ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੈ ਸਗਲ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਕਉਨ ਜਾਨੈ ਭੇਦੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਉ ਸਦਾ ਅਦੇਸੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਕਥਿਆ ਨ ਜਾਇ ਅਧਾਖ੍ਹਰੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਰਬ ਕਾ ਠਾਕੁਰੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਮਿਤਿ ਕਉਨੁ ਬਖਾਨੈ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਗਤਿ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਜਾਨੈ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਉ ਸਦਾ ਨਮਸਕਾਰੁ ॥7॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਭ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਕਾ ਕਰਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਦ ਜੀਵੈ ਨਹੀ ਮਰਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਮੁਕਤਿ ਜੁਗਤਿ ਜੀਅ ਕਾ ਦਾਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਪੂਰਨ ਪੁਰਖੁ ਬਿਧਾਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਅਨਾਥ ਕਾ ਨਾਥੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਸਭ ਊਪਰਿ ਹਾਥੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕਾ ਸਗਲ ਅਕਾਰੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਆਪਿ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਕੀ ਸੋਭਾ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਬਨੀ ॥
ਨਾਨਕ ਬ੍ਰਹਮ ਗਿਆਨੀ ਸਰਬ ਕਾ ਧਨੀ ॥8॥8॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਉਰਿ ਧਾਰੈ ਜੋ ਅੰਤਰਿ ਨਾਮੁ ॥
ਸਰਬ ਮੈ ਪੇਖੈ ਭਗਵਾਨੁ ॥
ਨਿਮਖ ਨਿਮਖ ਠਾਕੁਰ ਨਮਸਕਾਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਓਹੁ ਅਪਰਸੁ ਸਗਲ ਨਿਸਤਾਰੈ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਮਿਥਿਆ ਨਾਹੀ ਰਸਨਾ ਪਰਸ ॥
ਮਨ ਮਹਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ਨਿਰੰਜਨ ਦਰਸ ॥
ਪਰ ਤ੍ਰਿਅ ਰੂਪੁ ਨ ਪੇਖੈ ਨੇਤ੍ਰ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਟਹਲ ਸੰਤਸੰਗਿ ਹੇਤ ॥
ਕਰਨ ਨ ਸੁਨੈ ਕਾਹੂ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ॥
ਸਭ ਤੇ ਜਾਨੈ ਆਪਸ ਕਉ ਮੰਦਾ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਬਿਖਿਆ ਪਰਹਰੈ ॥
ਮਨ ਕੀ ਬਾਸਨਾ ਮਨ ਤੇ ਟਰੈ ॥
ਇੰਦ੍ਰੀ ਜਿਤ ਪੰਚ ਦੋਖ ਤੇ ਰਹਤ ॥
ਨਾਨਕ ਕੋਟਿ ਮਧੇ ਕੋ ਐਸਾ ਅਪਰਸ ॥1॥
ਬੈਸਨੋ ਸੋ ਜਿਸੁ ਊਪਰਿ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ॥
ਬਿਸਨ ਕੀ ਮਾਇਆ ਤੇ ਹੋਇ ਭਿੰਨ ॥
ਕਰਮ ਕਰਤ ਹੋਵੈ ਨਿਹਕਰਮ ॥
ਤਿਸੁ ਬੈਸਨੋ ਕਾ ਨਿਰਮਲ ਧਰਮ ॥
ਕਾਹੂ ਫਲ ਕੀ ਇਛਾ ਨਹੀ ਬਾਛੈ ॥
ਕੇਵਲ ਭਗਤਿ ਕੀਰਤਨ ਸੰਗਿ ਰਾਚੈ ॥
ਮਨ ਤਨ ਅੰਤਰਿ ਸਿਮਰਨ ਗੋਪਾਲ ॥
ਸਭ ਊਪਰਿ ਹੋਵਤ ਕਿਰਪਾਲ ॥
ਆਪਿ ਦ੍ਰਿੜੈ ਅਵਰਹ ਨਾਮੁ ਜਪਾਵੈ ॥
ਨਾਨਕ ਓਹੁ ਬੈਸਨੋ ਪਰਮ ਗਤਿ ਪਾਵੈ ॥2॥
ਭਗਉਤੀ ਭਗਵੰਤ ਭਗਤਿ ਕਾ ਰੰਗੁ ॥
ਸਗਲ ਤਿਆਗੈ ਦੁਸਟ ਕਾ ਸੰਗੁ ॥
ਮਨ ਤੇ ਬਿਨਸੈ ਸਗਲਾ ਭਰਮੁ ॥
ਕਰਿ ਪੂਜੈ ਸਗਲ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਪਾਪਾ ਮਲੁ ਖੋਵੈ ॥
ਤਿਸੁ ਭਗਉਤੀ ਕੀ ਮਤਿ ਊਤਮ ਹੋਵੈ ॥
ਭਗਵੰਤ ਕੀ ਟਹਲ ਕਰੈ ਨਿਤ ਨੀਤਿ ॥
ਮਨੁ ਤਨੁ ਅਰਪੈ ਬਿਸਨ ਪਰੀਤਿ ॥
ਹਰਿ ਕੇ ਚਰਨ ਹਿਰਦੈ ਬਸਾਵੈ ॥
ਨਾਨਕ ਐਸਾ ਭਗਉਤੀ ਭਗਵੰਤ ਕਉ ਪਾਵੈ ॥3॥
ਸੋ ਪੰਡਿਤੁ ਜੋ ਮਨੁ ਪਰਬੋਧੈ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਆਤਮ ਮਹਿ ਸੋਧੈ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਸਾਰੁ ਰਸੁ ਪੀਵੈ ॥
ਉਸੁ ਪੰਡਿਤ ਕੈ ਉਪਦੇਸਿ ਜਗੁ ਜੀਵੈ ॥
ਹਰਿ ਕੀ ਕਥਾ ਹਿਰਦੈ ਬਸਾਵੈ ॥
ਸੋ ਪੰਡਿਤੁ ਫਿਰਿ ਜੋਨਿ ਨ ਆਵੈ ॥
ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਬੂਝੈ ਮੂਲ ॥
ਸੂਖਮ ਮਹਿ ਜਾਨੈ ਅਸਥੂਲੁ ॥
ਚਹੁ ਵਰਨਾ ਕਉ ਦੇ ਉਪਦੇਸੁ ॥
ਨਾਨਕ ਉਸੁ ਪੰਡਿਤ ਕਉ ਸਦਾ ਅਦੇਸੁ ॥4॥
ਬੀਜ ਮੰਤ੍ਰੁ ਸਰਬ ਕੋ ਗਿਆਨੁ ॥
ਚਹੁ ਵਰਨਾ ਮਹਿ ਜਪੈ ਕੋਊ ਨਾਮੁ ॥
ਜੋ ਜੋ ਜਪੈ ਤਿਸ ਕੀ ਗਤਿ ਹੋਇ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਪਾਵੈ ਜਨੁ ਕੋਇ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਅੰਤਰਿ ਉਰ ਧਾਰੈ ॥
ਪਸੁ ਪ੍ਰੇਤ ਮੁਘਦ ਪਾਥਰ ਕਉ ਤਾਰੈ ॥
ਸਰਬ ਰੋਗ ਕਾ ਅਉਖਦੁ ਨਾਮੁ ॥
ਕਲਿਆਣ ਰੂਪ ਮੰਗਲ ਗੁਣ ਗਾਮ ॥
ਕਾਹੂ ਜੁਗਤਿ ਕਿਤੈ ਨ ਪਾਈਐ ਧਰਮਿ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਮਿਲੈ ਜਿਸੁ ਲਿਖਿਆ ਧੁਰਿ ਕਰਮਿ ॥5॥
ਜਿਸ ਕੈ ਮਨਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕਾ ਨਿਵਾਸੁ ॥
ਤਿਸ ਕਾ ਨਾਮੁ ਸਤਿ ਰਾਮਦਾਸੁ ॥
ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਤਿਸੁ ਨਦਰੀ ਆਇਆ ॥
ਦਾਸ ਦਸੰਤਣ ਭਾਇ ਤਿਨਿ ਪਾਇਆ ॥
ਸਦਾ ਨਿਕਟਿ ਨਿਕਟਿ ਹਰਿ ਜਾਨੁ ॥
ਸੋ ਦਾਸੁ ਦਰਗਹ ਪਰਵਾਨੁ ॥
ਅਪੁਨੇ ਦਾਸ ਕਉ ਆਪਿ ਕਿਰਪਾ ਕਰੈ ॥
ਤਿਸੁ ਦਾਸ ਕਉ ਸਭ ਸੋਝੀ ਪਰੈ ॥
ਸਗਲ ਸੰਗਿ ਆਤਮ ਉਦਾਸੁ ॥
ਐਸੀ ਜੁਗਤਿ ਨਾਨਕ ਰਾਮਦਾਸੁ ॥6॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਆਗਿਆ ਆਤਮ ਹਿਤਾਵੈ ॥
ਜੀਵਨ ਮੁਕਤਿ ਸੋਊ ਕਹਾਵੈ ॥
ਤੈਸਾ ਹਰਖੁ ਤੈਸਾ ਉਸੁ ਸੋਗੁ ॥
ਸਦਾ ਅਨੰਦੁ ਤਹ ਨਹੀ ਬਿਓਗੁ ॥
ਤੈਸਾ ਸੁਵਰਨੁ ਤੈਸੀ ਉਸੁ ਮਾਟੀ ॥
ਤੈਸਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਤੈਸੀ ਬਿਖੁ ਖਾਟੀ ॥
ਤੈਸਾ ਮਾਨੁ ਤੈਸਾ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
ਤੈਸਾ ਰੰਕੁ ਤੈਸਾ ਰਾਜਾਨੁ ॥
ਜੋ ਵਰਤਾਏ ਸਾਈ ਜੁਗਤਿ ॥
ਨਾਨਕ ਓਹੁ ਪੁਰਖੁ ਕਹੀਐ ਜੀਵਨ ਮੁਕਤਿ ॥7॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੇ ਸਗਲੇ ਠਾਉ ॥
ਜਿਤੁ ਜਿਤੁ ਘਰਿ ਰਾਖੈ ਤੈਸਾ ਤਿਨ ਨਾਉ ॥
ਆਪੇ ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਜੋਗੁ ॥
ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਫੁਨਿ ਹੋਗੁ ॥
ਪਸਰਿਓ ਆਪਿ ਹੋਇ ਅਨਤ ਤਰੰਗ ॥
ਲਖੇ ਨ ਜਾਹਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੇ ਰੰਗ ॥
ਜੈਸੀ ਮਤਿ ਦੇਇ ਤੈਸਾ ਪਰਗਾਸ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਕਰਤਾ ਅਬਿਨਾਸ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਸਦਾ ਦਇਆਲ ॥
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਨਾਨਕ ਭਏ ਨਿਹਾਲ ॥8॥9॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਉਸਤਤਿ ਕਰਹਿ ਅਨੇਕ ਜਨ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਰਾਵਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਰਚਨਾ ਪ੍ਰਭਿ ਰਚੀ ਬਹੁ ਬਿਧਿ ਅਨਿਕ ਪ੍ਰਕਾਰ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਹੋਏ ਪੂਜਾਰੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਆਚਾਰ ਬਿਉਹਾਰੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਭਏ ਤੀਰਥ ਵਾਸੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਬਨ ਭ੍ਰਮਹਿ ਉਦਾਸੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਬੇਦ ਕੇ ਸ੍ਰੋਤੇ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਤਪੀਸੁਰ ਹੋਤੇ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਆਤਮ ਧਿਆਨੁ ਧਾਰਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਕਬਿ ਕਾਬਿ ਬੀਚਾਰਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਨਵਤਨ ਨਾਮ ਧਿਆਵਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਕਰਤੇ ਕਾ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਵਹਿ ॥1॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਭਏ ਅਭਿਮਾਨੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਅੰਧ ਅਗਿਆਨੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਕਿਰਪਨ ਕਠੋਰ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਅਭਿਗ ਆਤਮ ਨਿਕੋਰ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਰ ਦਰਬ ਕਉ ਹਿਰਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਰ ਦੂਖਨਾ ਕਰਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਮਾਇਆ ਸ੍ਰਮ ਮਾਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਰਦੇਸ ਭ੍ਰਮਾਹਿ ॥
ਜਿਤੁ ਜਿਤੁ ਲਾਵਹੁ ਤਿਤੁ ਤਿਤੁ ਲਗਨਾ ॥
ਨਾਨਕ ਕਰਤੇ ਕੀ ਜਾਨੈ ਕਰਤਾ ਰਚਨਾ ॥2॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਸਿਧ ਜਤੀ ਜੋਗੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਰਾਜੇ ਰਸ ਭੋਗੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪੰਖੀ ਸਰਪ ਉਪਾਏ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਾਥਰ ਬਿਰਖ ਨਿਪਜਾਏ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਬੈਸੰਤਰ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਦੇਸ ਭੂ ਮੰਡਲ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਸਸੀਅਰ ਸੂਰ ਨਖ੍ਹਤ੍ਰ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਦੇਵ ਦਾਨਵ ਇੰਦ੍ਰ ਸਿਰਿ ਛਤ੍ਰ ॥
ਸਗਲ ਸਮਗ੍ਰੀ ਅਪਨੈ ਸੂਤਿ ਧਾਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਤਿਸੁ ਨਿਸਤਾਰੈ ॥3॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਰਾਜਸ ਤਾਮਸ ਸਾਤਕ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਅਰੁ ਸਾਸਤ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਕੀਏ ਰਤਨ ਸਮੁਦ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਨਾਨਾ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜੰਤ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਕੀਏ ਚਿਰ ਜੀਵੇ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਗਿਰੀ ਮੇਰ ਸੁਵਰਨ ਥੀਵੇ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਜਖ੍ਹ ਕਿੰਨਰ ਪਿਸਾਚ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਭੂਤ ਪ੍ਰੇਤ ਸੂਕਰ ਮ੍ਰਿਗਾਚ ॥
ਸਭ ਤੇ ਨੇਰੈ ਸਭਹੂ ਤੇ ਦੂਰਿ ॥
ਨਾਨਕ ਆਪਿ ਅਲਿਪਤੁ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰਿ ॥4॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਾਤਾਲ ਕੇ ਵਾਸੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਨਰਕ ਸੁਰਗ ਨਿਵਾਸੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਜਨਮਹਿ ਜੀਵਹਿ ਮਰਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਬਹੁ ਜੋਨੀ ਫਿਰਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਬੈਠਤ ਹੀ ਖਾਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਘਾਲਹਿ ਥਕਿ ਪਾਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਕੀਏ ਧਨਵੰਤ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਮਾਇਆ ਮਹਿ ਚਿੰਤ ॥
ਜਹ ਜਹ ਭਾਣਾ ਤਹ ਤਹ ਰਾਖੇ ॥
ਨਾਨਕ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਹਾਥੇ ॥5॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਭਏ ਬੈਰਾਗੀ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਸੰਗਿ ਤਿਨਿ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪ੍ਰਭ ਕਉ ਖੋਜੰਤੇ ॥
ਆਤਮ ਮਹਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਲਹੰਤੇ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਦਰਸਨ ਪ੍ਰਭ ਪਿਆਸ ॥
ਤਿਨ ਕਉ ਮਿਲਿਓ ਪ੍ਰਭੁ ਅਬਿਨਾਸ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਮਾਗਹਿ ਸਤਸੰਗੁ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਤਿਨ ਲਾਗਾ ਰੰਗੁ ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਹੋਏ ਆਪਿ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ॥
ਨਾਨਕ ਤੇ ਜਨ ਸਦਾ ਧਨਿ ਧੰਨਿ ॥6॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਖਾਣੀ ਅਰੁ ਖੰਡ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਅਕਾਸ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਹੋਏ ਅਵਤਾਰ ॥
ਕਈ ਜੁਗਤਿ ਕੀਨੋ ਬਿਸਥਾਰ ॥
ਕਈ ਬਾਰ ਪਸਰਿਓ ਪਾਸਾਰ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਇਕੁ ਏਕੰਕਾਰ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਕੀਨੇ ਬਹੁ ਭਾਤਿ ॥
ਪ੍ਰਭ ਤੇ ਹੋਏ ਪ੍ਰਭ ਮਾਹਿ ਸਮਾਤਿ ॥
ਤਾ ਕਾ ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਨੈ ਕੋਇ ॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥7॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੇ ਦਾਸ ॥
ਤਿਨ ਹੋਵਤ ਆਤਮ ਪਰਗਾਸ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਤਤ ਕੇ ਬੇਤੇ ॥
ਸਦਾ ਨਿਹਾਰਹਿ ਏਕੋ ਨੇਤ੍ਰੇ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਨਾਮ ਰਸੁ ਪੀਵਹਿ ॥
ਅਮਰ ਭਏ ਸਦ ਸਦ ਹੀ ਜੀਵਹਿ ॥
ਕਈ ਕੋਟਿ ਨਾਮ ਗੁਨ ਗਾਵਹਿ ॥
ਆਤਮ ਰਸਿ ਸੁਖਿ ਸਹਜਿ ਸਮਾਵਹਿ ॥
ਅਪੁਨੇ ਜਨ ਕਉ ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਸਮਾਰੇ ॥
ਨਾਨਕ ਓਇ ਪਰਮੇਸੁਰ ਕੇ ਪਿਆਰੇ ॥8॥10॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਕਰਣ ਕਾਰਣ ਪ੍ਰਭੁ ਏਕੁ ਹੈ ਦੂਸਰ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਬਲਿਹਾਰਣੈ ਜਲਿ ਥਲਿ ਮਹੀਅਲਿ ਸੋਇ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਕਰਨੈ ਜੋਗੁ ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਹੋਗੁ ॥
ਖਿਨ ਮਹਿ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪਨਹਾਰਾ ॥
ਅੰਤੁ ਨਹੀ ਕਿਛੁ ਪਾਰਾਵਾਰਾ ॥
ਹੁਕਮੇ ਧਾਰਿ ਅਧਰ ਰਹਾਵੈ ॥
ਹੁਕਮੇ ਉਪਜੈ ਹੁਕਮਿ ਸਮਾਵੈ ॥
ਹੁਕਮੇ ਊਚ ਨੀਚ ਬਿਉਹਾਰ ॥
ਹੁਕਮੇ ਅਨਿਕ ਰੰਗ ਪਰਕਾਰ ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਦੇਖੈ ਅਪਨੀ ਵਡਿਆਈ ॥
ਨਾਨਕ ਸਭ ਮਹਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ ॥1॥
ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਮਾਨੁਖ ਗਤਿ ਪਾਵੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਤਾ ਪਾਥਰ ਤਰਾਵੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਬਿਨੁ ਸਾਸ ਤੇ ਰਾਖੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਤਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਭਾਖੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਤਾ ਪਤਿਤ ਉਧਾਰੈ ॥
ਆਪਿ ਕਰੈ ਆਪਨ ਬੀਚਾਰੈ ॥
ਦੁਹਾ ਸਿਰਿਆ ਕਾ ਆਪਿ ਸੁਆਮੀ ॥
ਖੇਲੈ ਬਿਗਸੈ ਅੰਤਰਜਾਮੀ ॥
ਜੋ ਭਾਵੈ ਸੋ ਕਾਰ ਕਰਾਵੈ ॥
ਨਾਨਕ ਦ੍ਰਿਸਟੀ ਅਵਰੁ ਨ ਆਵੈ ॥2॥
ਕਹੁ ਮਾਨੁਖ ਤੇ ਕਿਆ ਹੋਇ ਆਵੈ ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਕਰਾਵੈ ॥
ਇਸ ਕੈ ਹਾਥਿ ਹੋਇ ਤਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਲੇਇ ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਕਰੇਇ ॥
ਅਨਜਾਨਤ ਬਿਖਿਆ ਮਹਿ ਰਚੈ ॥
ਜੇ ਜਾਨਤ ਆਪਨ ਆਪ ਬਚੈ ॥
ਭਰਮੇ ਭੂਲਾ ਦਹ ਦਿਸਿ ਧਾਵੈ ॥
ਨਿਮਖ ਮਾਹਿ ਚਾਰਿ ਕੁੰਟ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਿਸੁ ਅਪਨੀ ਭਗਤਿ ਦੇਇ ॥
ਨਾਨਕ ਤੇ ਜਨ ਨਾਮਿ ਮਿਲੇਇ ॥3॥
ਖਿਨ ਮਹਿ ਨੀਚ ਕੀਟ ਕਉ ਰਾਜ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਗਰੀਬ ਨਿਵਾਜ ॥
ਜਾ ਕਾ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਕਛੂ ਨ ਆਵੈ ॥
ਤਿਸੁ ਤਤਕਾਲ ਦਹ ਦਿਸ ਪ੍ਰਗਟਾਵੈ ॥
ਜਾ ਕਉ ਅਪੁਨੀ ਕਰੈ ਬਖਸੀਸ ॥
ਤਾ ਕਾ ਲੇਖਾ ਨ ਗਨੈ ਜਗਦੀਸ ॥
ਜੀਉ ਪਿੰਡੁ ਸਭ ਤਿਸ ਕੀ ਰਾਸਿ ॥
ਘਟਿ ਘਟਿ ਪੂਰਨ ਬ੍ਰਹਮ ਪ੍ਰਗਾਸ ॥
ਅਪਨੀ ਬਣਤ ਆਪਿ ਬਨਾਈ ॥
ਨਾਨਕ ਜੀਵੈ ਦੇਖਿ ਬਡਾਈ ॥4॥
ਇਸ ਕਾ ਬਲੁ ਨਾਹੀ ਇਸੁ ਹਾਥ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਸਰਬ ਕੋ ਨਾਥ ॥
ਆਗਿਆਕਾਰੀ ਬਪੁਰਾ ਜੀਉ ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਫੁਨਿ ਥੀਉ ॥
ਕਬਹੂ ਊਚ ਨੀਚ ਮਹਿ ਬਸੈ ॥
ਕਬਹੂ ਸੋਗ ਹਰਖ ਰੰਗਿ ਹਸੈ ॥
ਕਬਹੂ ਨਿੰਦ ਚਿੰਦ ਬਿਉਹਾਰ ॥
ਕਬਹੂ ਊਭ ਅਕਾਸ ਪਇਆਲ ॥
ਕਬਹੂ ਬੇਤਾ ਬ੍ਰਹਮ ਬੀਚਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਆਪਿ ਮਿਲਾਵਣਹਾਰ ॥5॥
ਕਬਹੂ ਨਿਰਤਿ ਕਰੈ ਬਹੁ ਭਾਤਿ ॥
ਕਬਹੂ ਸੋਇ ਰਹੈ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥
ਕਬਹੂ ਮਹਾ ਕ੍ਰੋਧ ਬਿਕਰਾਲ ॥
ਕਬਹੂੰ ਸਰਬ ਕੀ ਹੋਤ ਰਵਾਲ ॥
ਕਬਹੂ ਹੋਇ ਬਹੈ ਬਡ ਰਾਜਾ ॥
ਕਬਹੁ ਭੇਖਾਰੀ ਨੀਚ ਕਾ ਸਾਜਾ ॥
ਕਬਹੂ ਅਪਕੀਰਤਿ ਮਹਿ ਆਵੈ ॥
ਕਬਹੂ ਭਲਾ ਭਲਾ ਕਹਾਵੈ ॥
ਜਿਉ ਪ੍ਰਭੁ ਰਾਖੈ ਤਿਵ ਹੀ ਰਹੈ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਸਚੁ ਕਹੈ ॥6॥
ਕਬਹੂ ਹੋਇ ਪੰਡਿਤੁ ਕਰੇ ਬਖ੍ਹਾਨੁ ॥
ਕਬਹੂ ਮੋਨਿਧਾਰੀ ਲਾਵੈ ਧਿਆਨੁ ॥
ਕਬਹੂ ਤਟ ਤੀਰਥ ਇਸਨਾਨ ॥
ਕਬਹੂ ਸਿਧ ਸਾਧਿਕ ਮੁਖਿ ਗਿਆਨ ॥
ਕਬਹੂ ਕੀਟ ਹਸਤਿ ਪਤੰਗ ਹੋਇ ਜੀਆ ॥
ਅਨਿਕ ਜੋਨਿ ਭਰਮੈ ਭਰਮੀਆ ॥
ਨਾਨਾ ਰੂਪ ਜਿਉ ਸ੍ਵਾਗੀ ਦਿਖਾਵੈ ॥
ਜਿਉ ਪ੍ਰਭ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਨਚਾਵੈ ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਹੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਦੂਜਾ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥7॥
ਕਬਹੂ ਸਾਧਸੰਗਤਿ ਇਹੁ ਪਾਵੈ ॥
ਉਸੁ ਅਸਥਾਨ ਤੇ ਬਹੁਰਿ ਨ ਆਵੈ ॥
ਅੰਤਰਿ ਹੋਇ ਗਿਆਨ ਪਰਗਾਸੁ ॥
ਉਸੁ ਅਸਥਾਨ ਕਾ ਨਹੀ ਬਿਨਾਸੁ ॥
ਮਨ ਤਨ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਇਕ ਰੰਗਿ ॥
ਸਦਾ ਬਸਹਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥
ਜਿਉ ਜਲ ਮਹਿ ਜਲੁ ਆਇ ਖਟਾਨਾ ॥
ਤਿਉ ਜੋਤੀ ਸੰਗਿ ਜੋਤਿ ਸਮਾਨਾ ॥
ਮਿਟਿ ਗਏ ਗਵਨ ਪਾਏ ਬਿਸ੍ਰਾਮ ॥
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਸਦ ਕੁਰਬਾਨ ॥8॥11॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਸੁਖੀ ਬਸੈ ਮਸਕੀਨੀਆ ਆਪੁ ਨਿਵਾਰਿ ਤਲੇ ॥
ਬਡੇ ਬਡੇ ਅਹੰਕਾਰੀਆ ਨਾਨਕ ਗਰਬਿ ਗਲੇ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਜਿਸ ਕੈ ਅੰਤਰਿ ਰਾਜ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
ਸੋ ਨਰਕਪਾਤੀ ਹੋਵਤ ਸੁਆਨੁ ॥
ਜੋ ਜਾਨੈ ਮੈ ਜੋਬਨਵੰਤੁ ॥
ਸੋ ਹੋਵਤ ਬਿਸਟਾ ਕਾ ਜੰਤੁ ॥
ਆਪਸ ਕਉ ਕਰਮਵੰਤੁ ਕਹਾਵੈ ॥
ਜਨਮਿ ਮਰੈ ਬਹੁ ਜੋਨਿ ਭ੍ਰਮਾਵੈ ॥
ਧਨ ਭੂਮਿ ਕਾ ਜੋ ਕਰੈ ਗੁਮਾਨੁ ॥
ਸੋ ਮੂਰਖੁ ਅੰਧਾ ਅਗਿਆਨੁ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਿਸ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਗਰੀਬੀ ਬਸਾਵੈ ॥
ਨਾਨਕ ਈਹਾ ਮੁਕਤੁ ਆਗੈ ਸੁਖੁ ਪਾਵੈ ॥1॥
ਧਨਵੰਤਾ ਹੋਇ ਕਰਿ ਗਰਬਾਵੈ ॥
ਤ੍ਰਿਣ ਸਮਾਨਿ ਕਛੁ ਸੰਗਿ ਨ ਜਾਵੈ ॥
ਬਹੁ ਲਸਕਰ ਮਾਨੁਖ ਊਪਰਿ ਕਰੇ ਆਸ ॥
ਪਲ ਭੀਤਰਿ ਤਾ ਕਾ ਹੋਇ ਬਿਨਾਸ ॥
ਸਭ ਤੇ ਆਪ ਜਾਨੈ ਬਲਵੰਤੁ ॥
ਖਿਨ ਮਹਿ ਹੋਇ ਜਾਇ ਭਸਮੰਤੁ ॥
ਕਿਸੈ ਨ ਬਦੈ ਆਪਿ ਅਹੰਕਾਰੀ ॥
ਧਰਮ ਰਾਇ ਤਿਸੁ ਕਰੇ ਖੁਆਰੀ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਜਾ ਕਾ ਮਿਟੈ ਅਭਿਮਾਨੁ ॥
ਸੋ ਜਨੁ ਨਾਨਕ ਦਰਗਹ ਪਰਵਾਨੁ ॥2॥
ਕੋਟਿ ਕਰਮ ਕਰੈ ਹਉ ਧਾਰੇ ॥
ਸ੍ਰਮੁ ਪਾਵੈ ਸਗਲੇ ਬਿਰਥਾਰੇ ॥
ਅਨਿਕ ਤਪਸਿਆ ਕਰੇ ਅਹੰਕਾਰ ॥
ਨਰਕ ਸੁਰਗ ਫਿਰਿ ਫਿਰਿ ਅਵਤਾਰ ॥
ਅਨਿਕ ਜਤਨ ਕਰਿ ਆਤਮ ਨਹੀ ਦ੍ਰਵੈ ॥
ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਕਹੁ ਕੈਸੇ ਗਵੈ ॥
ਆਪਸ ਕਉ ਜੋ ਭਲਾ ਕਹਾਵੈ ॥
ਤਿਸਹਿ ਭਲਾਈ ਨਿਕਟਿ ਨ ਆਵੈ ॥
ਸਰਬ ਕੀ ਰੇਨ ਜਾ ਕਾ ਮਨੁ ਹੋਇ ॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੀ ਨਿਰਮਲ ਸੋਇ ॥3॥
ਜਬ ਲਗੁ ਜਾਨੈ ਮੁਝ ਤੇ ਕਛੁ ਹੋਇ ॥
ਤਬ ਇਸ ਕਉ ਸੁਖੁ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
ਜਬ ਇਹ ਜਾਨੈ ਮੈ ਕਿਛੁ ਕਰਤਾ ॥
ਤਬ ਲਗੁ ਗਰਭ ਜੋਨਿ ਮਹਿ ਫਿਰਤਾ ॥
ਜਬ ਧਾਰੈ ਕੋਊ ਬੈਰੀ ਮੀਤੁ ॥
ਤਬ ਲਗੁ ਨਿਹਚਲੁ ਨਾਹੀ ਚੀਤੁ ॥
ਜਬ ਲਗੁ ਮੋਹ ਮਗਨ ਸੰਗਿ ਮਾਇ ॥
ਤਬ ਲਗੁ ਧਰਮ ਰਾਇ ਦੇਇ ਸਜਾਇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਬੰਧਨ ਤੂਟੈ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਹਉ ਛੂਟੈ ॥4॥
ਸਹਸ ਖਟੇ ਲਖ ਕਉ ਉਠਿ ਧਾਵੈ ॥
ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਨ ਆਵੈ ਮਾਇਆ ਪਾਛੈ ਪਾਵੈ ॥
ਅਨਿਕ ਭੋਗ ਬਿਖਿਆ ਕੇ ਕਰੈ ॥
ਨਹ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵੈ ਖਪਿ ਖਪਿ ਮਰੈ ॥
ਬਿਨਾ ਸੰਤੋਖ ਨਹੀ ਕੋਊ ਰਾਜੈ ॥
ਸੁਪਨ ਮਨੋਰਥ ਬ੍ਰਿਥੇ ਸਭ ਕਾਜੈ ॥
ਨਾਮ ਰੰਗਿ ਸਰਬ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
ਬਡਭਾਗੀ ਕਿਸੈ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਆਪੇ ਆਪਿ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਜਾਪਿ ॥5॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
ਇਸ ਕੈ ਹਾਥਿ ਕਹਾ ਬੀਚਾਰੁ ॥
ਜੈਸੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਕਰੇ ਤੈਸਾ ਹੋਇ ॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕੀਨੋ ਸੁ ਅਪਨੈ ਰੰਗਿ ॥
ਸਭ ਤੇ ਦੂਰਿ ਸਭਹੂ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥
ਬੂਝੈ ਦੇਖੈ ਕਰੈ ਬਿਬੇਕ ॥
ਆਪਹਿ ਏਕ ਆਪਹਿ ਅਨੇਕ ॥
ਮਰੈ ਨ ਬਿਨਸੈ ਆਵੈ ਨ ਜਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਸਦ ਹੀ ਰਹਿਆ ਸਮਾਇ ॥6॥
ਆਪਿ ਉਪਦੇਸੈ ਸਮਝੈ ਆਪਿ ॥
ਆਪੇ ਰਚਿਆ ਸਭ ਕੈ ਸਾਥਿ ॥
ਆਪਿ ਕੀਨੋ ਆਪਨ ਬਿਸਥਾਰੁ ॥
ਸਭੁ ਕਛੁ ਉਸ ਕਾ ਓਹੁ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
ਉਸ ਤੇ ਭਿੰਨ ਕਹਹੁ ਕਿਛੁ ਹੋਇ ॥
ਥਾਨ ਥਨੰਤਰਿ ਏਕੈ ਸੋਇ ॥
ਅਪੁਨੇ ਚਲਿਤ ਆਪਿ ਕਰਣੈਹਾਰ ॥
ਕਉਤਕ ਕਰੈ ਰੰਗ ਆਪਾਰ ॥
ਮਨ ਮਹਿ ਆਪਿ ਮਨ ਅਪੁਨੇ ਮਾਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਕੀਮਤਿ ਕਹਨੁ ਨ ਜਾਇ ॥7॥
ਸਤਿ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੁਆਮੀ ॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਕਿਨੈ ਵਖਿਆਨੀ ॥
ਸਚੁ ਸਚੁ ਸਚੁ ਸਭੁ ਕੀਨਾ ॥
ਕੋਟਿ ਮਧੇ ਕਿਨੈ ਬਿਰਲੈ ਚੀਨਾ ॥
ਭਲਾ ਭਲਾ ਭਲਾ ਤੇਰਾ ਰੂਪ ॥
ਅਤਿ ਸੁੰਦਰ ਅਪਾਰ ਅਨੂਪ ॥
ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲ ਤੇਰੀ ਬਾਣੀ ॥
ਘਟਿ ਘਟਿ ਸੁਨੀ ਸ੍ਰਵਨ ਬਖ੍ਹਾਣੀ ॥
ਪਵਿਤ੍ਰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਪਵਿਤ੍ਰ ਪੁਨੀਤ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪੈ ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥8॥12॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਸੰਤ ਸਰਨਿ ਜੋ ਜਨੁ ਪਰੈ ਸੋ ਜਨੁ ਉਧਰਨਹਾਰ ॥
ਸੰਤ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ਨਾਨਕਾ ਬਹੁਰਿ ਬਹੁਰਿ ਅਵਤਾਰ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਆਰਜਾ ਘਟੈ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਜਮ ਤੇ ਨਹੀ ਛੁਟੈ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸੁਖੁ ਸਭੁ ਜਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਨਰਕ ਮਹਿ ਪਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਮਤਿ ਹੋਇ ਮਲੀਨ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸੋਭਾ ਤੇ ਹੀਨ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਹਤੇ ਕਉ ਰਖੈ ਨ ਕੋਇ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਥਾਨ ਭ੍ਰਸਟੁ ਹੋਇ ॥
ਸੰਤ ਕ੍ਰਿਪਾਲ ਕ੍ਰਿਪਾ ਜੇ ਕਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਸੰਤਸੰਗਿ ਨਿੰਦਕੁ ਭੀ ਤਰੈ ॥1॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੂਖਨ ਤੇ ਮੁਖੁ ਭਵੈ ॥
ਸੰਤਨ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਕਾਗ ਜਿਉ ਲਵੈ ॥
ਸੰਤਨ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸਰਪ ਜੋਨਿ ਪਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਤ੍ਰਿਗਦ ਜੋਨਿ ਕਿਰਮਾਇ ॥
ਸੰਤਨ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਮਹਿ ਜਲੈ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਸਭੁ ਕੋ ਛਲੈ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਤੇਜੁ ਸਭੁ ਜਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੂਖਨਿ ਨੀਚੁ ਨੀਚਾਇ ॥
ਸੰਤ ਦੋਖੀ ਕਾ ਥਾਉ ਕੋ ਨਾਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਭਾਵੈ ਤਾ ਓਇ ਭੀ ਗਤਿ ਪਾਹਿ ॥2॥
ਸੰਤ ਕਾ ਨਿੰਦਕੁ ਮਹਾ ਅਤਤਾਈ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਨਿੰਦਕੁ ਖਿਨੁ ਟਿਕਨੁ ਨ ਪਾਈ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਨਿੰਦਕੁ ਮਹਾ ਹਤਿਆਰਾ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਨਿੰਦਕੁ ਪਰਮੇਸੁਰਿ ਮਾਰਾ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਨਿੰਦਕੁ ਰਾਜ ਤੇ ਹੀਨੁ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਨਿੰਦਕੁ ਦੁਖੀਆ ਅਰੁ ਦੀਨੁ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਨਿੰਦਕ ਕਉ ਸਰਬ ਰੋਗ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਨਿੰਦਕ ਕਉ ਸਦਾ ਬਿਜੋਗ ॥
ਸੰਤ ਕੀ ਨਿੰਦਾ ਦੋਖ ਮਹਿ ਦੋਖੁ ॥
ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਭਾਵੈ ਤਾ ਉਸ ਕਾ ਭੀ ਹੋਇ ਮੋਖੁ ॥3॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਸਦਾ ਅਪਵਿਤੁ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਕਿਸੈ ਕਾ ਨਹੀ ਮਿਤੁ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕਉ ਡਾਨੁ ਲਾਗੈ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕਉ ਸਭ ਤਿਆਗੈ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਮਹਾ ਅਹੰਕਾਰੀ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਸਦਾ ਬਿਕਾਰੀ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਜਨਮੈ ਮਰੈ ॥
ਸੰਤ ਕੀ ਦੂਖਨਾ ਸੁਖ ਤੇ ਟਰੈ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕਉ ਨਾਹੀ ਠਾਉ ॥
ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਭਾਵੈ ਤਾ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥4॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਅਧ ਬੀਚ ਤੇ ਟੂਟੈ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਕਿਤੈ ਕਾਜਿ ਨ ਪਹੂਚੈ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕਉ ਉਦਿਆਨ ਭ੍ਰਮਾਈਐ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਉਝੜਿ ਪਾਈਐ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਅੰਤਰ ਤੇ ਥੋਥਾ ॥
ਜਿਉ ਸਾਸ ਬਿਨਾ ਮਿਰਤਕ ਕੀ ਲੋਥਾ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕੀ ਜੜ ਕਿਛੁ ਨਾਹਿ ॥
ਆਪਨ ਬੀਜਿ ਆਪੇ ਹੀ ਖਾਹਿ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕਉ ਅਵਰੁ ਨ ਰਾਖਨਹਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕ ਸੰਤ ਭਾਵੈ ਤਾ ਲਏ ਉਬਾਰਿ ॥5॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਇਉ ਬਿਲਲਾਇ ॥
ਜਿਉ ਜਲ ਬਿਹੂਨ ਮਛੁਲੀ ਤੜਫੜਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਭੂਖਾ ਨਹੀ ਰਾਜੈ ॥
ਜਿਉ ਪਾਵਕੁ ਈਧਨਿ ਨਹੀ ਧ੍ਰਾਪੈ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਛੁਟੈ ਇਕੇਲਾ ॥
ਜਿਉ ਬੂਆੜੁ ਤਿਲੁ ਖੇਤ ਮਾਹਿ ਦੁਹੇਲਾ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਧਰਮ ਤੇ ਰਹਤ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਸਦ ਮਿਥਿਆ ਕਹਤ ॥
ਕਿਰਤੁ ਨਿੰਦਕ ਕਾ ਧੁਰਿ ਹੀ ਪਇਆ ॥
ਨਾਨਕ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਥਿਆ ॥6॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਬਿਗੜ ਰੂਪੁ ਹੋਇ ਜਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕਉ ਦਰਗਹ ਮਿਲੈ ਸਜਾਇ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਸਦਾ ਸਹਕਾਈਐ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਨ ਮਰੈ ਨ ਜੀਵਾਈਐ ॥
ਸੰਤ ਕੇ ਦੋਖੀ ਕੀ ਪੁਜੈ ਨ ਆਸਾ ॥
ਸੰਤ ਕਾ ਦੋਖੀ ਉਠਿ ਚਲੈ ਨਿਰਾਸਾ ॥
ਸੰਤ ਕੈ ਦੋਖਿ ਨ ਤ੍ਰਿਸਟੈ ਕੋਇ ॥
ਜੈਸਾ ਭਾਵੈ ਤੈਸਾ ਕੋਈ ਹੋਇ ॥
ਪਇਆ ਕਿਰਤੁ ਨ ਮੇਟੈ ਕੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਾਨੈ ਸਚਾ ਸੋਇ ॥7॥
ਸਭ ਘਟ ਤਿਸ ਕੇ ਓਹੁ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਤਿਸ ਕਉ ਨਮਸਕਾਰੁ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਉਸਤਤਿ ਕਰਹੁ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥
ਤਿਸਹਿ ਧਿਆਵਹੁ ਸਾਸਿ ਗਿਰਾਸਿ ॥
ਸਭੁ ਕਛੁ ਵਰਤੈ ਤਿਸ ਕਾ ਕੀਆ ॥
ਜੈਸਾ ਕਰੇ ਤੈਸਾ ਕੋ ਥੀਆ ॥
ਅਪਨਾ ਖੇਲੁ ਆਪਿ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
ਦੂਸਰ ਕਉਨੁ ਕਹੈ ਬੀਚਾਰੁ ॥
ਜਿਸ ਨੋ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰੈ ਤਿਸੁ ਆਪਨ ਨਾਮੁ ਦੇਇ ॥
ਬਡਭਾਗੀ ਨਾਨਕ ਜਨ ਸੇਇ ॥8॥13॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਤਜਹੁ ਸਿਆਨਪ ਸੁਰਿ ਜਨਹੁ ਸਿਮਰਹੁ ਹਰਿ ਹਰਿ ਰਾਇ ॥
ਏਕ ਆਸ ਹਰਿ ਮਨਿ ਰਖਹੁ ਨਾਨਕ ਦੂਖੁ ਭਰਮੁ ਭਉ ਜਾਇ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਮਾਨੁਖ ਕੀ ਟੇਕ ਬ੍ਰਿਥੀ ਸਭ ਜਾਨੁ ॥
ਦੇਵਨ ਕਉ ਏਕੈ ਭਗਵਾਨੁ ॥
ਜਿਸ ਕੈ ਦੀਐ ਰਹੈ ਅਘਾਇ ॥
ਬਹੁਰਿ ਨ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਲਾਗੈ ਆਇ ॥
ਮਾਰੈ ਰਾਖੈ ਏਕੋ ਆਪਿ ॥
ਮਾਨੁਖ ਕੈ ਕਿਛੁ ਨਾਹੀ ਹਾਥਿ ॥
ਤਿਸ ਕਾ ਹੁਕਮੁ ਬੂਝਿ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
ਤਿਸ ਕਾ ਨਾਮੁ ਰਖੁ ਕੰਠਿ ਪਰੋਇ ॥
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਬਿਘਨੁ ਨ ਲਾਗੈ ਕੋਇ ॥1॥
ਉਸਤਤਿ ਮਨ ਮਹਿ ਕਰਿ ਨਿਰੰਕਾਰ ॥
ਕਰਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਤਿ ਬਿਉਹਾਰ ॥
ਨਿਰਮਲ ਰਸਨਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਉ ॥
ਸਦਾ ਸੁਹੇਲਾ ਕਰਿ ਲੇਹਿ ਜੀਉ ॥
ਨੈਨਹੁ ਪੇਖੁ ਠਾਕੁਰ ਕਾ ਰੰਗੁ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਬਿਨਸੈ ਸਭ ਸੰਗੁ ॥
ਚਰਨ ਚਲਉ ਮਾਰਗਿ ਗੋਬਿੰਦ ॥
ਮਿਟਹਿ ਪਾਪ ਜਪੀਐ ਹਰਿ ਬਿੰਦ ॥
ਕਰ ਹਰਿ ਕਰਮ ਸ੍ਰਵਨਿ ਹਰਿ ਕਥਾ ॥
ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਨਾਨਕ ਊਜਲ ਮਥਾ ॥2॥
ਬਡਭਾਗੀ ਤੇ ਜਨ ਜਗ ਮਾਹਿ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਹਿ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਜੋ ਕਰਹਿ ਬੀਚਾਰ ॥
ਸੇ ਧਨਵੰਤ ਗਨੀ ਸੰਸਾਰ ॥
ਮਨਿ ਤਨਿ ਮੁਖਿ ਬੋਲਹਿ ਹਰਿ ਮੁਖੀ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਜਾਨਹੁ ਤੇ ਸੁਖੀ ॥
ਏਕੋ ਏਕੁ ਏਕੁ ਪਛਾਨੈ ॥
ਇਤ ਉਤ ਕੀ ਓਹੁ ਸੋਝੀ ਜਾਨੈ ॥
ਨਾਮ ਸੰਗਿ ਜਿਸ ਕਾ ਮਨੁ ਮਾਨਿਆ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਨਹਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਜਾਨਿਆ ॥3॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਆਪਨ ਆਪੁ ਸੁਝੈ ॥
ਤਿਸ ਕੀ ਜਾਨਹੁ ਤ੍ਰਿਸਨਾ ਬੁਝੈ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਕਹਤ ॥
ਸਰਬ ਰੋਗ ਤੇ ਓਹੁ ਹਰਿ ਜਨੁ ਰਹਤ ॥
ਅਨਦਿਨੁ ਕੀਰਤਨੁ ਕੇਵਲ ਬਖ੍ਹਾਨੁ ॥
ਗ੍ਰਿਹਸਤ ਮਹਿ ਸੋਈ ਨਿਰਬਾਨੁ ॥
ਏਕ ਊਪਰਿ ਜਿਸੁ ਜਨ ਕੀ ਆਸਾ ॥
ਤਿਸ ਕੀ ਕਟੀਐ ਜਮ ਕੀ ਫਾਸਾ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੀ ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਭੂਖ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸਹਿ ਨ ਲਾਗਹਿ ਦੂਖ ॥4॥
ਜਿਸ ਕਉ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਮਨਿ ਚਿਤਿ ਆਵੈ ॥
ਸੋ ਸੰਤੁ ਸੁਹੇਲਾ ਨਹੀ ਡੁਲਾਵੈ ॥
ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਭੁ ਅਪੁਨਾ ਕਿਰਪਾ ਕਰੈ ॥
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਕਹੁ ਕਿਸ ਤੇ ਡਰੈ ॥
ਜੈਸਾ ਸਾ ਤੈਸਾ ਦ੍ਰਿਸਟਾਇਆ ॥
ਅਪੁਨੇ ਕਾਰਜ ਮਹਿ ਆਪਿ ਸਮਾਇਆ ॥
ਸੋਧਤ ਸੋਧਤ ਸੋਧਤ ਸੀਝਿਆ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤਤੁ ਸਭੁ ਬੂਝਿਆ ॥
ਜਬ ਦੇਖਉ ਤਬ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਮੂਲੁ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਸੂਖਮੁ ਸੋਈ ਅਸਥੂਲੁ ॥5॥
ਨਹ ਕਿਛੁ ਜਨਮੈ ਨਹ ਕਿਛੁ ਮਰੈ ॥
ਆਪਨ ਚਲਿਤੁ ਆਪ ਹੀ ਕਰੈ ॥
ਆਵਨੁ ਜਾਵਨੁ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਅਨਦ੍ਰਿਸਟਿ ॥
ਆਗਿਆਕਾਰੀ ਧਾਰੀ ਸਭ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਸਗਲ ਮਹਿ ਆਪਿ ॥
ਅਨਿਕ ਜੁਗਤਿ ਰਚਿ ਥਾਪਿ ਉਥਾਪਿ ॥
ਅਬਿਨਾਸੀ ਨਾਹੀ ਕਿਛੁ ਖੰਡ ॥
ਧਾਰਣ ਧਾਰਿ ਰਹਿਓ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ॥
ਅਲਖ ਅਭੇਵ ਪੁਰਖ ਪਰਤਾਪ ॥
ਆਪਿ ਜਪਾਏ ਤ ਨਾਨਕ ਜਾਪ ॥6॥
ਜਿਨ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਤਾ ਸੁ ਸੋਭਾਵੰਤ ॥
ਸਗਲ ਸੰਸਾਰੁ ਉਧਰੈ ਤਿਨ ਮੰਤ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੇ ਸੇਵਕ ਸਗਲ ਉਧਾਰਨ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੇ ਸੇਵਕ ਦੂਖ ਬਿਸਾਰਨ ॥
ਆਪੇ ਮੇਲਿ ਲਏ ਕਿਰਪਾਲ ॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਜਪਿ ਭਏ ਨਿਹਾਲ ॥
ਉਨ ਕੀ ਸੇਵਾ ਸੋਈ ਲਾਗੈ ॥
ਜਿਸ ਨੋ ਕ੍ਰਿਪਾ ਕਰਹਿ ਬਡਭਾਗੈ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਪਾਵਹਿ ਬਿਸ੍ਰਾਮੁ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਪੁਰਖ ਕਉ ਊਤਮ ਕਰਿ ਮਾਨੁ ॥7॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਰੈ ਸੁ ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਰੰਗਿ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਬਸੈ ਹਰਿ ਸੰਗਿ ॥
ਸਹਜ ਸੁਭਾਇ ਹੋਵੈ ਸੋ ਹੋਇ ॥
ਕਰਣੈਹਾਰੁ ਪਛਾਣੈ ਸੋਇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਕੀਆ ਜਨ ਮੀਠ ਲਗਾਨਾ ॥
ਜੈਸਾ ਸਾ ਤੈਸਾ ਦ੍ਰਿਸਟਾਨਾ ॥
ਜਿਸ ਤੇ ਉਪਜੇ ਤਿਸੁ ਮਾਹਿ ਸਮਾਏ ॥
ਓਇ ਸੁਖ ਨਿਧਾਨ ਉਨਹੂ ਬਨਿ ਆਏ ॥
ਆਪਸ ਕਉ ਆਪਿ ਦੀਨੋ ਮਾਨੁ ॥
ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਜਨੁ ਏਕੋ ਜਾਨੁ ॥8॥14॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਸਰਬ ਕਲਾ ਭਰਪੂਰ ਪ੍ਰਭ ਬਿਰਥਾ ਜਾਨਨਹਾਰ ॥
ਜਾ ਕੈ ਸਿਮਰਨਿ ਉਧਰੀਐ ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਬਲਿਹਾਰ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਟੂਟੀ ਗਾਢਨਹਾਰ ਗੁੋਪਾਲ ॥
ਸਰਬ ਜੀਆ ਆਪੇ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲ ॥
ਸਗਲ ਕੀ ਚਿੰਤਾ ਜਿਸੁ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਬਿਰਥਾ ਕੋਈ ਨਾਹਿ ॥
ਰੇ ਮਨ ਮੇਰੇ ਸਦਾ ਹਰਿ ਜਾਪਿ ॥
ਅਬਿਨਾਸੀ ਪ੍ਰਭੁ ਆਪੇ ਆਪਿ ॥
ਆਪਨ ਕੀਆ ਕਛੂ ਨ ਹੋਇ ॥
ਜੇ ਸਉ ਪ੍ਰਾਨੀ ਲੋਚੈ ਕੋਇ ॥
ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਨਾਹੀ ਤੇਰੈ ਕਿਛੁ ਕਾਮ ॥
ਗਤਿ ਨਾਨਕ ਜਪਿ ਏਕ ਹਰਿ ਨਾਮ ॥1॥
ਰੂਪਵੰਤੁ ਹੋਇ ਨਾਹੀ ਮੋਹੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਜੋਤਿ ਸਗਲ ਘਟ ਸੋਹੈ ॥
ਧਨਵੰਤਾ ਹੋਇ ਕਿਆ ਕੋ ਗਰਬੈ ॥
ਜਾ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਿਸ ਕਾ ਦੀਆ ਦਰਬੈ ॥
ਅਤਿ ਸੂਰਾ ਜੇ ਕੋਊ ਕਹਾਵੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਕਲਾ ਬਿਨਾ ਕਹ ਧਾਵੈ ॥
ਜੇ ਕੋ ਹੋਇ ਬਹੈ ਦਾਤਾਰੁ ॥
ਤਿਸੁ ਦੇਨਹਾਰੁ ਜਾਨੈ ਗਾਵਾਰੁ ॥
ਜਿਸੁ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਤੂਟੈ ਹਉ ਰੋਗੁ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਜਨੁ ਸਦਾ ਅਰੋਗੁ ॥2॥
ਜਿਉ ਮੰਦਰ ਕਉ ਥਾਮੈ ਥੰਮਨੁ ॥
ਤਿਉ ਗੁਰ ਕਾ ਸਬਦੁ ਮਨਹਿ ਅਸਥੰਮਨੁ ॥
ਜਿਉ ਪਾਖਾਣੁ ਨਾਵ ਚੜਿ ਤਰੈ ॥
ਪ੍ਰਾਣੀ ਗੁਰ ਚਰਣ ਲਗਤੁ ਨਿਸਤਰੈ ॥
ਜਿਉ ਅੰਧਕਾਰ ਦੀਪਕ ਪਰਗਾਸੁ ॥
ਗੁਰ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖਿ ਮਨਿ ਹੋਇ ਬਿਗਾਸੁ ॥
ਜਿਉ ਮਹਾ ਉਦਿਆਨ ਮਹਿ ਮਾਰਗੁ ਪਾਵੈ ॥
ਤਿਉ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ਮਿਲਿ ਜੋਤਿ ਪ੍ਰਗਟਾਵੈ ॥
ਤਿਨ ਸੰਤਨ ਕੀ ਬਾਛਉ ਧੂਰਿ ॥
ਨਾਨਕ ਕੀ ਹਰਿ ਲੋਚਾ ਪੂਰਿ ॥3॥
ਮਨ ਮੂਰਖ ਕਾਹੇ ਬਿਲਲਾਈਐ ॥
ਪੁਰਬ ਲਿਖੇ ਕਾ ਲਿਖਿਆ ਪਾਈਐ ॥
ਦੂਖ ਸੂਖ ਪ੍ਰਭ ਦੇਵਨਹਾਰੁ ॥
ਅਵਰ ਤਿਆਗਿ ਤੂ ਤਿਸਹਿ ਚਿਤਾਰੁ ॥
ਜੋ ਕਛੁ ਕਰੈ ਸੋਈ ਸੁਖੁ ਮਾਨੁ ॥
ਭੂਲਾ ਕਾਹੇ ਫਿਰਹਿ ਅਜਾਨ ॥
ਕਉਨ ਬਸਤੁ ਆਈ ਤੇਰੈ ਸੰਗ ॥
ਲਪਟਿ ਰਹਿਓ ਰਸਿ ਲੋਭੀ ਪਤੰਗ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਜਪਿ ਹਿਰਦੇ ਮਾਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਪਤਿ ਸੇਤੀ ਘਰਿ ਜਾਹਿ ॥4॥
ਜਿਸੁ ਵਖਰ ਕਉ ਲੈਨਿ ਤੂ ਆਇਆ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਸੰਤਨ ਘਰਿ ਪਾਇਆ ॥
ਤਜਿ ਅਭਿਮਾਨੁ ਲੇਹੁ ਮਨ ਮੋਲਿ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਹਿਰਦੇ ਮਹਿ ਤੋਲਿ ॥
ਲਾਦਿ ਖੇਪ ਸੰਤਹ ਸੰਗਿ ਚਾਲੁ ॥
ਅਵਰ ਤਿਆਗਿ ਬਿਖਿਆ ਜੰਜਾਲ ॥
ਧੰਨਿ ਧੰਨਿ ਕਹੈ ਸਭੁ ਕੋਇ ॥
ਮੁਖ ਊਜਲ ਹਰਿ ਦਰਗਹ ਸੋਇ ॥
ਇਹੁ ਵਾਪਾਰੁ ਵਿਰਲਾ ਵਾਪਾਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੈ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ॥5॥
ਚਰਨ ਸਾਧ ਕੇ ਧੋਇ ਧੋਇ ਪੀਉ ॥
ਅਰਪਿ ਸਾਧ ਕਉ ਅਪਨਾ ਜੀਉ ॥
ਸਾਧ ਕੀ ਧੂਰਿ ਕਰਹੁ ਇਸਨਾਨੁ ॥
ਸਾਧ ਊਪਰਿ ਜਾਈਐ ਕੁਰਬਾਨੁ ॥
ਸਾਧ ਸੇਵਾ ਵਡਭਾਗੀ ਪਾਈਐ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਹਰਿ ਕੀਰਤਨੁ ਗਾਈਐ ॥
ਅਨਿਕ ਬਿਘਨ ਤੇ ਸਾਧੂ ਰਾਖੈ ॥
ਹਰਿ ਗੁਨ ਗਾਇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਚਾਖੈ ॥
ਓਟ ਗਹੀ ਸੰਤਹ ਦਰਿ ਆਇਆ ॥
ਸਰਬ ਸੂਖ ਨਾਨਕ ਤਿਹ ਪਾਇਆ ॥6॥
ਮਿਰਤਕ ਕਉ ਜੀਵਾਲਨਹਾਰ ॥
ਭੂਖੇ ਕਉ ਦੇਵਤ ਅਧਾਰ ॥
ਸਰਬ ਨਿਧਾਨ ਜਾ ਕੀ ਦ੍ਰਿਸਟੀ ਮਾਹਿ ॥
ਪੁਰਬ ਲਿਖੇ ਕਾ ਲਹਣਾ ਪਾਹਿ ॥
ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਤਿਸ ਕਾ ਓਹੁ ਕਰਨੈ ਜੋਗੁ ॥
ਤਿਸੁ ਬਿਨੁ ਦੂਸਰ ਹੋਆ ਨ ਹੋਗੁ ॥
ਜਪਿ ਜਨ ਸਦਾ ਸਦਾ ਦਿਨੁ ਰੈਣੀ ॥
ਸਭ ਤੇ ਊਚ ਨਿਰਮਲ ਇਹ ਕਰਣੀ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਿਸ ਕਉ ਨਾਮੁ ਦੀਆ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਜਨੁ ਨਿਰਮਲੁ ਥੀਆ ॥7॥
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਗੁਰ ਕੀ ਪਰਤੀਤਿ ॥
ਤਿਸੁ ਜਨ ਆਵੈ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਚੀਤਿ ॥
ਭਗਤੁ ਭਗਤੁ ਸੁਨੀਐ ਤਿਹੁ ਲੋਇ ॥
ਜਾ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਏਕੋ ਹੋਇ ॥
ਸਚੁ ਕਰਣੀ ਸਚੁ ਤਾ ਕੀ ਰਹਤ ॥
ਸਚੁ ਹਿਰਦੈ ਸਤਿ ਮੁਖਿ ਕਹਤ ॥
ਸਾਚੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਸਾਚਾ ਆਕਾਰੁ ॥
ਸਚੁ ਵਰਤੈ ਸਾਚਾ ਪਾਸਾਰੁ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਜਿਨਿ ਸਚੁ ਕਰਿ ਜਾਤਾ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਜਨੁ ਸਚਿ ਸਮਾਤਾ ॥8॥15॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਰੂਪੁ ਨ ਰੇਖ ਨ ਰੰਗੁ ਕਿਛੁ ਤ੍ਰਿਹੁ ਗੁਣ ਤੇ ਪ੍ਰਭ ਭਿੰਨ ॥
ਤਿਸਹਿ ਬੁਝਾਏ ਨਾਨਕਾ ਜਿਸੁ ਹੋਵੈ ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਅਬਿਨਾਸੀ ਪ੍ਰਭੁ ਮਨ ਮਹਿ ਰਾਖੁ ॥
ਮਾਨੁਖ ਕੀ ਤੂ ਪ੍ਰੀਤਿ ਤਿਆਗੁ ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਪਰੈ ਨਾਹੀ ਕਿਛੁ ਕੋਇ ॥
ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਏਕੋ ਸੋਇ ॥
ਆਪੇ ਬੀਨਾ ਆਪੇ ਦਾਨਾ ॥
ਗਹਿਰ ਗੰਭੀਰੁ ਗਹੀਰੁ ਸੁਜਾਨਾ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਪਰਮੇਸੁਰ ਗੋਬਿੰਦ ॥
ਕ੍ਰਿਪਾ ਨਿਧਾਨ ਦਇਆਲ ਬਖਸੰਦ ॥
ਸਾਧ ਤੇਰੇ ਕੀ ਚਰਨੀ ਪਾਉ ॥
ਨਾਨਕ ਕੈ ਮਨਿ ਇਹੁ ਅਨਰਾਉ ॥1॥
ਮਨਸਾ ਪੂਰਨ ਸਰਨਾ ਜੋਗ ॥
ਜੋ ਕਰਿ ਪਾਇਆ ਸੋਈ ਹੋਗੁ ॥
ਹਰਨ ਭਰਨ ਜਾ ਕਾ ਨੇਤ੍ਰ ਫੋਰੁ ॥
ਤਿਸ ਕਾ ਮੰਤ੍ਰੁ ਨ ਜਾਨੈ ਹੋਰੁ ॥
ਅਨਦ ਰੂਪ ਮੰਗਲ ਸਦ ਜਾ ਕੈ ॥
ਸਰਬ ਥੋਕ ਸੁਨੀਅਹਿ ਘਰਿ ਤਾ ਕੈ ॥
ਰਾਜ ਮਹਿ ਰਾਜੁ ਜੋਗ ਮਹਿ ਜੋਗੀ ॥
ਤਪ ਮਹਿ ਤਪੀਸਰੁ ਗ੍ਰਿਹਸਤ ਮਹਿ ਭੋਗੀ ॥
ਧਿਆਇ ਧਿਆਇ ਭਗਤਹ ਸੁਖੁ ਪਾਇਆ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਪੁਰਖ ਕਾ ਕਿਨੈ ਅੰਤੁ ਨ ਪਾਇਆ ॥2॥
ਜਾ ਕੀ ਲੀਲਾ ਕੀ ਮਿਤਿ ਨਾਹਿ ॥
ਸਗਲ ਦੇਵ ਹਾਰੇ ਅਵਗਾਹਿ ॥
ਪਿਤਾ ਕਾ ਜਨਮੁ ਕਿ ਜਾਨੈ ਪੂਤੁ ॥
ਸਗਲ ਪਰੋਈ ਅਪੁਨੈ ਸੂਤਿ ॥
ਸੁਮਤਿ ਗਿਆਨੁ ਧਿਆਨੁ ਜਿਨ ਦੇਇ ॥
ਜਨ ਦਾਸ ਨਾਮੁ ਧਿਆਵਹਿ ਸੇਇ ॥
ਤਿਹੁ ਗੁਣ ਮਹਿ ਜਾ ਕਉ ਭਰਮਾਏ ॥
ਜਨਮਿ ਮਰੈ ਫਿਰਿ ਆਵੈ ਜਾਏ ॥
ਊਚ ਨੀਚ ਤਿਸ ਕੇ ਅਸਥਾਨ ॥
ਜੈਸਾ ਜਨਾਵੈ ਤੈਸਾ ਨਾਨਕ ਜਾਨ ॥3॥
ਨਾਨਾ ਰੂਪ ਨਾਨਾ ਜਾ ਕੇ ਰੰਗ ॥
ਨਾਨਾ ਭੇਖ ਕਰਹਿ ਇਕ ਰੰਗ ॥
ਨਾਨਾ ਬਿਧਿ ਕੀਨੋ ਬਿਸਥਾਰੁ ॥
ਪ੍ਰਭੁ ਅਬਿਨਾਸੀ ਏਕੰਕਾਰੁ ॥
ਨਾਨਾ ਚਲਿਤ ਕਰੇ ਖਿਨ ਮਾਹਿ ॥
ਪੂਰਿ ਰਹਿਓ ਪੂਰਨੁ ਸਭ ਠਾਇ ॥
ਨਾਨਾ ਬਿਧਿ ਕਰਿ ਬਨਤ ਬਨਾਈ ॥
ਅਪਨੀ ਕੀਮਤਿ ਆਪੇ ਪਾਈ ॥
ਸਭ ਘਟ ਤਿਸ ਕੇ ਸਭ ਤਿਸ ਕੇ ਠਾਉ ॥
ਜਪਿ ਜਪਿ ਜੀਵੈ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥4॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਸਗਲੇ ਜੰਤ ॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਖੰਡ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਸੁਨਨ ਗਿਆਨ ਧਿਆਨ ॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਆਗਾਸ ਪਾਤਾਲ ॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਸਗਲ ਆਕਾਰ ॥
ਨਾਮ ਕੇ ਧਾਰੇ ਪੁਰੀਆ ਸਭ ਭਵਨ ॥
ਨਾਮ ਕੈ ਸੰਗਿ ਉਧਰੇ ਸੁਨਿ ਸ੍ਰਵਨ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਜਿਸੁ ਆਪਨੈ ਨਾਮਿ ਲਾਏ ॥
ਨਾਨਕ ਚਉਥੇ ਪਦ ਮਹਿ ਸੋ ਜਨੁ ਗਤਿ ਪਾਏ ॥5॥
ਰੂਪੁ ਸਤਿ ਜਾ ਕਾ ਸਤਿ ਅਸਥਾਨੁ ॥
ਪੁਰਖੁ ਸਤਿ ਕੇਵਲ ਪਰਧਾਨੁ ॥
ਕਰਤੂਤਿ ਸਤਿ ਸਤਿ ਜਾ ਕੀ ਬਾਣੀ ॥
ਸਤਿ ਪੁਰਖ ਸਭ ਮਾਹਿ ਸਮਾਣੀ ॥
ਸਤਿ ਕਰਮੁ ਜਾ ਕੀ ਰਚਨਾ ਸਤਿ ॥
ਮੂਲੁ ਸਤਿ ਸਤਿ ਉਤਪਤਿ ॥
ਸਤਿ ਕਰਣੀ ਨਿਰਮਲ ਨਿਰਮਲੀ ॥
ਜਿਸਹਿ ਬੁਝਾਏ ਤਿਸਹਿ ਸਭ ਭਲੀ ॥
ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਸੁਖਦਾਈ ॥
ਬਿਸ੍ਵਾਸੁ ਸਤਿ ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਤੇ ਪਾਈ ॥6॥
ਸਤਿ ਬਚਨ ਸਾਧੂ ਉਪਦੇਸ ॥
ਸਤਿ ਤੇ ਜਨ ਜਾ ਕੈ ਰਿਦੈ ਪ੍ਰਵੇਸ ॥
ਸਤਿ ਨਿਰਤਿ ਬੂਝੈ ਜੇ ਕੋਇ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਤਾ ਕੀ ਗਤਿ ਹੋਇ ॥
ਆਪਿ ਸਤਿ ਕੀਆ ਸਭੁ ਸਤਿ ॥
ਆਪੇ ਜਾਨੈ ਅਪਨੀ ਮਿਤਿ ਗਤਿ ॥
ਜਿਸ ਕੀ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਸੁ ਕਰਣੈਹਾਰੁ ॥
ਅਵਰ ਨ ਬੂਝਿ ਕਰਤ ਬੀਚਾਰੁ ॥
ਕਰਤੇ ਕੀ ਮਿਤਿ ਨ ਜਾਨੈ ਕੀਆ ॥
ਨਾਨਕ ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋ ਵਰਤੀਆ ॥7॥
ਬਿਸਮਨ ਬਿਸਮ ਭਏ ਬਿਸਮਾਦ ॥
ਜਿਨਿ ਬੂਝਿਆ ਤਿਸੁ ਆਇਆ ਸ੍ਵਾਦ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੈ ਰੰਗਿ ਰਾਚਿ ਜਨ ਰਹੇ ॥
ਗੁਰ ਕੈ ਬਚਨਿ ਪਦਾਰਥ ਲਹੇ ॥
ਓਇ ਦਾਤੇ ਦੁਖ ਕਾਟਨਹਾਰ ॥
ਜਾ ਕੈ ਸੰਗਿ ਤਰੈ ਸੰਸਾਰ ॥
ਜਨ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਸੋ ਵਡਭਾਗੀ ॥
ਜਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਏਕ ਲਿਵ ਲਾਗੀ ॥
ਗੁਨ ਗੋਬਿਦ ਕੀਰਤਨੁ ਜਨੁ ਗਾਵੈ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਫਲੁ ਪਾਵੈ ॥8॥16॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਆਦਿ ਸਚੁ ਜੁਗਾਦਿ ਸਚੁ ॥
ਹੈ ਭਿ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਹੋਸੀ ਭਿ ਸਚੁ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਚਰਨ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪਰਸਨਹਾਰ ॥
ਪੂਜਾ ਸਤਿ ਸਤਿ ਸੇਵਦਾਰ ॥
ਦਰਸਨੁ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪੇਖਨਹਾਰ ॥
ਨਾਮੁ ਸਤਿ ਸਤਿ ਧਿਆਵਨਹਾਰ ॥
ਆਪਿ ਸਤਿ ਸਤਿ ਸਭ ਧਾਰੀ ॥
ਆਪੇ ਗੁਣ ਆਪੇ ਗੁਣਕਾਰੀ ॥
ਸਬਦੁ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਬਕਤਾ ॥
ਸੁਰਤਿ ਸਤਿ ਸਤਿ ਜਸੁ ਸੁਨਤਾ ॥
ਬੁਝਨਹਾਰ ਕਉ ਸਤਿ ਸਭ ਹੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਸਤਿ ਸਤਿ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥1॥
ਸਤਿ ਸਰੂਪੁ ਰਿਦੈ ਜਿਨਿ ਮਾਨਿਆ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਤਿਨਿ ਮੂਲੁ ਪਛਾਨਿਆ ॥
ਜਾ ਕੈ ਰਿਦੈ ਬਿਸ੍ਵਾਸੁ ਪ੍ਰਭ ਆਇਆ ॥
ਤਤੁ ਗਿਆਨੁ ਤਿਸੁ ਮਨਿ ਪ੍ਰਗਟਾਇਆ ॥
ਭੈ ਤੇ ਨਿਰਭਉ ਹੋਇ ਬਸਾਨਾ ॥
ਜਿਸ ਤੇ ਉਪਜਿਆ ਤਿਸੁ ਮਾਹਿ ਸਮਾਨਾ ॥
ਬਸਤੁ ਮਾਹਿ ਲੇ ਬਸਤੁ ਗਡਾਈ ॥
ਤਾ ਕਉ ਭਿੰਨ ਨ ਕਹਨਾ ਜਾਈ ॥
ਬੂਝੈ ਬੂਝਨਹਾਰੁ ਬਿਬੇਕ ॥
ਨਾਰਾਇਨ ਮਿਲੇ ਨਾਨਕ ਏਕ ॥2॥
ਠਾਕੁਰ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਆਗਿਆਕਾਰੀ ॥
ਠਾਕੁਰ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਸਦਾ ਪੂਜਾਰੀ ॥
ਠਾਕੁਰ ਕੇ ਸੇਵਕ ਕੈ ਮਨਿ ਪਰਤੀਤਿ ॥
ਠਾਕੁਰ ਕੇ ਸੇਵਕ ਕੀ ਨਿਰਮਲ ਰੀਤਿ ॥
ਠਾਕੁਰ ਕਉ ਸੇਵਕੁ ਜਾਨੈ ਸੰਗਿ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਸੇਵਕੁ ਨਾਮ ਕੈ ਰੰਗਿ ॥
ਸੇਵਕ ਕਉ ਪ੍ਰਭ ਪਾਲਨਹਾਰਾ ॥
ਸੇਵਕ ਕੀ ਰਾਖੈ ਨਿਰੰਕਾਰਾ ॥
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਜਿਸੁ ਦਇਆ ਪ੍ਰਭੁ ਧਾਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਸਮਾਰੈ ॥3॥
ਅਪੁਨੇ ਜਨ ਕਾ ਪਰਦਾ ਢਾਕੈ ॥
ਅਪਨੇ ਸੇਵਕ ਕੀ ਸਰਪਰ ਰਾਖੈ ॥
ਅਪਨੇ ਦਾਸ ਕਉ ਦੇਇ ਵਡਾਈ ॥
ਅਪਨੇ ਸੇਵਕ ਕਉ ਨਾਮੁ ਜਪਾਈ ॥
ਅਪਨੇ ਸੇਵਕ ਕੀ ਆਪਿ ਪਤਿ ਰਾਖੈ ॥
ਤਾ ਕੀ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਕੋਇ ਨ ਲਾਖੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੇ ਸੇਵਕ ਕਉ ਕੋ ਨ ਪਹੂਚੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕੇ ਸੇਵਕ ਊਚ ਤੇ ਊਚੇ ॥
ਜੋ ਪ੍ਰਭਿ ਅਪਨੀ ਸੇਵਾ ਲਾਇਆ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਦਹ ਦਿਸਿ ਪ੍ਰਗਟਾਇਆ ॥4॥
ਨੀਕੀ ਕੀਰੀ ਮਹਿ ਕਲ ਰਾਖੈ ॥
ਭਸਮ ਕਰੈ ਲਸਕਰ ਕੋਟਿ ਲਾਖੈ ॥
ਜਿਸ ਕਾ ਸਾਸੁ ਨ ਕਾਢਤ ਆਪਿ ॥
ਤਾ ਕਉ ਰਾਖਤ ਦੇ ਕਰਿ ਹਾਥ ॥
ਮਾਨਸ ਜਤਨ ਕਰਤ ਬਹੁ ਭਾਤਿ ॥
ਤਿਸ ਕੇ ਕਰਤਬ ਬਿਰਥੇ ਜਾਤਿ ॥
ਮਾਰੈ ਨ ਰਾਖੈ ਅਵਰੁ ਨ ਕੋਇ ॥
ਸਰਬ ਜੀਆ ਕਾ ਰਾਖਾ ਸੋਇ ॥
ਕਾਹੇ ਸੋਚ ਕਰਹਿ ਰੇ ਪ੍ਰਾਣੀ ॥
ਜਪਿ ਨਾਨਕ ਪ੍ਰਭ ਅਲਖ ਵਿਡਾਣੀ ॥5॥
ਬਾਰੰ ਬਾਰ ਬਾਰ ਪ੍ਰਭੁ ਜਪੀਐ ॥
ਪੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਇਹੁ ਮਨੁ ਤਨੁ ਧ੍ਰਪੀਐ ॥
ਨਾਮ ਰਤਨੁ ਜਿਨਿ ਗੁਰਮੁਖਿ ਪਾਇਆ ॥
ਤਿਸੁ ਕਿਛੁ ਅਵਰੁ ਨਾਹੀ ਦ੍ਰਿਸਟਾਇਆ ॥
ਨਾਮੁ ਧਨੁ ਨਾਮੋ ਰੂਪੁ ਰੰਗੁ ॥
ਨਾਮੋ ਸੁਖੁ ਹਰਿ ਨਾਮ ਕਾ ਸੰਗੁ ॥
ਨਾਮ ਰਸਿ ਜੋ ਜਨ ਤ੍ਰਿਪਤਾਨੇ ॥
ਮਨ ਤਨ ਨਾਮਹਿ ਨਾਮਿ ਸਮਾਨੇ ॥
ਊਠਤ ਬੈਠਤ ਸੋਵਤ ਨਾਮ ॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਨ ਕੈ ਸਦ ਕਾਮ ॥6॥
ਬੋਲਹੁ ਜਸੁ ਜਿਹਬਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥
ਪ੍ਰਭਿ ਅਪਨੈ ਜਨ ਕੀਨੀ ਦਾਤਿ ॥
ਕਰਹਿ ਭਗਤਿ ਆਤਮ ਕੈ ਚਾਇ ॥
ਪ੍ਰਭ ਅਪਨੇ ਸਿਉ ਰਹਹਿ ਸਮਾਇ ॥
ਜੋ ਹੋਆ ਹੋਵਤ ਸੋ ਜਾਨੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਅਪਨੇ ਕਾ ਹੁਕਮੁ ਪਛਾਨੈ ॥
ਤਿਸ ਕੀ ਮਹਿਮਾ ਕਉਨ ਬਖਾਨਉ ॥
ਤਿਸ ਕਾ ਗੁਨੁ ਕਹਿ ਏਕ ਨ ਜਾਨਉ ॥
ਆਠ ਪਹਰ ਪ੍ਰਭ ਬਸਹਿ ਹਜੂਰੇ ॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਸੇਈ ਜਨ ਪੂਰੇ ॥7॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਤਿਨ ਕੀ ਓਟ ਲੇਹਿ ॥
ਮਨੁ ਤਨੁ ਅਪਨਾ ਤਿਨ ਜਨ ਦੇਹਿ ॥
ਜਿਨਿ ਜਨਿ ਅਪਨਾ ਪ੍ਰਭੂ ਪਛਾਤਾ ॥
ਸੋ ਜਨੁ ਸਰਬ ਥੋਕ ਕਾ ਦਾਤਾ ॥
ਤਿਸ ਕੀ ਸਰਨਿ ਸਰਬ ਸੁਖ ਪਾਵਹਿ ॥
ਤਿਸ ਕੈ ਦਰਸਿ ਸਭ ਪਾਪ ਮਿਟਾਵਹਿ ॥
ਅਵਰ ਸਿਆਨਪ ਸਗਲੀ ਛਾਡੁ ॥
ਤਿਸੁ ਜਨ ਕੀ ਤੂ ਸੇਵਾ ਲਾਗੁ ॥
ਆਵਨੁ ਜਾਨੁ ਨ ਹੋਵੀ ਤੇਰਾ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕੇ ਪੂਜਹੁ ਸਦ ਪੈਰਾ ॥8॥17॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਸਤਿ ਪੁਰਖੁ ਜਿਨਿ ਜਾਨਿਆ ਸਤਿਗੁਰੁ ਤਿਸ ਕਾ ਨਾਉ ॥
ਤਿਸ ਕੈ ਸੰਗਿ ਸਿਖੁ ਉਧਰੈ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਿਖ ਕੀ ਕਰੈ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲ ॥
ਸੇਵਕ ਕਉ ਗੁਰੁ ਸਦਾ ਦਇਆਲ ॥
ਸਿਖ ਕੀ ਗੁਰੁ ਦੁਰਮਤਿ ਮਲੁ ਹਿਰੈ ॥
ਗੁਰ ਬਚਨੀ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਉਚਰੈ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਿਖ ਕੇ ਬੰਧਨ ਕਾਟੈ ॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਿਖੁ ਬਿਕਾਰ ਤੇ ਹਾਟੈ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਿਖ ਕਉ ਨਾਮ ਧਨੁ ਦੇਇ ॥
ਗੁਰ ਕਾ ਸਿਖੁ ਵਡਭਾਗੀ ਹੇ ॥
ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਿਖ ਕਾ ਹਲਤੁ ਪਲਤੁ ਸਵਾਰੈ ॥
ਨਾਨਕ ਸਤਿਗੁਰੁ ਸਿਖ ਕਉ ਜੀਅ ਨਾਲਿ ਸਮਾਰੈ ॥1॥
ਗੁਰ ਕੈ ਗ੍ਰਿਹਿ ਸੇਵਕੁ ਜੋ ਰਹੈ ॥
ਗੁਰ ਕੀ ਆਗਿਆ ਮਨ ਮਹਿ ਸਹੈ ॥
ਆਪਸ ਕਉ ਕਰਿ ਕਛੁ ਨ ਜਨਾਵੈ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਰਿਦੈ ਸਦ ਧਿਆਵੈ ॥
ਮਨੁ ਬੇਚੈ ਸਤਿਗੁਰ ਕੈ ਪਾਸਿ ॥
ਤਿਸੁ ਸੇਵਕ ਕੇ ਕਾਰਜ ਰਾਸਿ ॥
ਸੇਵਾ ਕਰਤ ਹੋਇ ਨਿਹਕਾਮੀ ॥
ਤਿਸ ਕਉ ਹੋਤ ਪਰਾਪਤਿ ਸੁਆਮੀ ॥
ਅਪਨੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਕਰੇਇ ॥
ਨਾਨਕ ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਗੁਰ ਕੀ ਮਤਿ ਲੇਇ ॥2॥
ਬੀਸ ਬਿਸਵੇ ਗੁਰ ਕਾ ਮਨੁ ਮਾਨੈ ॥
ਸੋ ਸੇਵਕੁ ਪਰਮੇਸੁਰ ਕੀ ਗਤਿ ਜਾਨੈ ॥
ਸੋ ਸਤਿਗੁਰੁ ਜਿਸੁ ਰਿਦੈ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥
ਅਨਿਕ ਬਾਰ ਗੁਰ ਕਉ ਬਲਿ ਜਾਉ ॥
ਸਰਬ ਨਿਧਾਨ ਜੀਅ ਕਾ ਦਾਤਾ ॥
ਆਠ ਪਹਰ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਰੰਗਿ ਰਾਤਾ ॥
ਬ੍ਰਹਮ ਮਹਿ ਜਨੁ ਜਨ ਮਹਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ॥
ਏਕਹਿ ਆਪਿ ਨਹੀ ਕਛੁ ਭਰਮੁ ॥
ਸਹਸ ਸਿਆਨਪ ਲਇਆ ਨ ਜਾਈਐ ॥
ਨਾਨਕ ਐਸਾ ਗੁਰੁ ਬਡਭਾਗੀ ਪਾਈਐ ॥3॥
ਸਫਲ ਦਰਸਨੁ ਪੇਖਤ ਪੁਨੀਤ ॥
ਪਰਸਤ ਚਰਨ ਗਤਿ ਨਿਰਮਲ ਰੀਤਿ ॥
ਭੇਟਤ ਸੰਗਿ ਰਾਮ ਗੁਨ ਰਵੇ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਕੀ ਦਰਗਹ ਗਵੇ ॥
ਸੁਨਿ ਕਰਿ ਬਚਨ ਕਰਨ ਆਘਾਨੇ ॥
ਮਨਿ ਸੰਤੋਖੁ ਆਤਮ ਪਤੀਆਨੇ ॥
ਪੂਰਾ ਗੁਰੁ ਅਖ੍ਹਓ ਜਾ ਕਾ ਮੰਤ੍ਰ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਪੇਖੈ ਹੋਇ ਸੰਤ ॥
ਗੁਣ ਬਿਅੰਤ ਕੀਮਤਿ ਨਹੀ ਪਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥4॥
ਜਿਹਬਾ ਏਕ ਉਸਤਤਿ ਅਨੇਕ ॥
ਸਤਿ ਪੁਰਖ ਪੂਰਨ ਬਿਬੇਕ ॥
ਕਾਹੂ ਬੋਲ ਨ ਪਹੁਚਤ ਪ੍ਰਾਨੀ ॥
ਅਗਮ ਅਗੋਚਰ ਪ੍ਰਭ ਨਿਰਬਾਨੀ ॥
ਨਿਰਾਹਾਰ ਨਿਰਵੈਰ ਸੁਖਦਾਈ ॥
ਤਾ ਕੀ ਕੀਮਤਿ ਕਿਨੈ ਨ ਪਾਈ ॥
ਅਨਿਕ ਭਗਤ ਬੰਦਨ ਨਿਤ ਕਰਹਿ ॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਹਿਰਦੈ ਸਿਮਰਹਿ ॥
ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਅਪਨੇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਐਸਾ ਪ੍ਰਭੁ ਜਪਨੇ ॥5॥
ਇਹੁ ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਵੈ ਜਨੁ ਕੋਇ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪੀਵੈ ਅਮਰੁ ਸੋ ਹੋਇ ॥
ਉਸੁ ਪੁਰਖ ਕਾ ਨਾਹੀ ਕਦੇ ਬਿਨਾਸ ॥
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਪ੍ਰਗਟੇ ਗੁਨਤਾਸ ॥
ਆਠ ਪਹਰ ਹਰਿ ਕਾ ਨਾਮੁ ਲੇਇ ॥
ਸਚੁ ਉਪਦੇਸੁ ਸੇਵਕ ਕਉ ਦੇਇ ॥
ਮੋਹ ਮਾਇਆ ਕੈ ਸੰਗਿ ਨ ਲੇਪੁ ॥
ਮਨ ਮਹਿ ਰਾਖੈ ਹਰਿ ਹਰਿ ਏਕੁ ॥
ਅੰਧਕਾਰ ਦੀਪਕ ਪਰਗਾਸੇ ॥
ਨਾਨਕ ਭਰਮ ਮੋਹ ਦੁਖ ਤਹ ਤੇ ਨਾਸੇ ॥6॥
ਤਪਤਿ ਮਾਹਿ ਠਾਢਿ ਵਰਤਾਈ ॥
ਅਨਦੁ ਭਇਆ ਦੁਖ ਨਾਠੇ ਭਾਈ ॥
ਜਨਮ ਮਰਨ ਕੇ ਮਿਟੇ ਅੰਦੇਸੇ ॥
ਸਾਧੂ ਕੇ ਪੂਰਨ ਉਪਦੇਸੇ ॥
ਭਉ ਚੂਕਾ ਨਿਰਭਉ ਹੋਇ ਬਸੇ ॥
ਸਗਲ ਬਿਆਧਿ ਮਨ ਤੇ ਖੈ ਨਸੇ ॥
ਜਿਸ ਕਾ ਸਾ ਤਿਨਿ ਕਿਰਪਾ ਧਾਰੀ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਜਪਿ ਨਾਮੁ ਮੁਰਾਰੀ ॥
ਥਿਤਿ ਪਾਈ ਚੂਕੇ ਭ੍ਰਮ ਗਵਨ ॥
ਸੁਨਿ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਹਰਿ ਜਸੁ ਸ੍ਰਵਨ ॥7॥
ਨਿਰਗੁਨੁ ਆਪਿ ਸਰਗੁਨੁ ਭੀ ਓਹੀ ॥
ਕਲਾ ਧਾਰਿ ਜਿਨਿ ਸਗਲੀ ਮੋਹੀ ॥
ਅਪਨੇ ਚਰਿਤ ਪ੍ਰਭਿ ਆਪਿ ਬਨਾਏ ॥
ਅਪੁਨੀ ਕੀਮਤਿ ਆਪੇ ਪਾਏ ॥
ਹਰਿ ਬਿਨੁ ਦੂਜਾ ਨਾਹੀ ਕੋਇ ॥
ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਏਕੋ ਸੋਇ ॥
ਓਤਿ ਪੋਤਿ ਰਵਿਆ ਰੂਪ ਰੰਗ ॥
ਭਏ ਪ੍ਰਗਾਸ ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗ ॥
ਰਚਿ ਰਚਨਾ ਅਪਨੀ ਕਲ ਧਾਰੀ ॥
ਅਨਿਕ ਬਾਰ ਨਾਨਕ ਬਲਿਹਾਰੀ ॥8॥18॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਸਾਥਿ ਨ ਚਾਲੈ ਬਿਨੁ ਭਜਨ ਬਿਖਿਆ ਸਗਲੀ ਛਾਰੁ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਕਮਾਵਨਾ ਨਾਨਕ ਇਹੁ ਧਨੁ ਸਾਰੁ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਮਿਲਿ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥
ਏਕੁ ਸਿਮਰਿ ਨਾਮ ਆਧਾਰੁ ॥
ਅਵਰਿ ਉਪਾਵ ਸਭਿ ਮੀਤ ਬਿਸਾਰਹੁ ॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਰਿਦ ਮਹਿ ਉਰਿ ਧਾਰਹੁ ॥
ਕਰਨ ਕਾਰਨ ਸੋ ਪ੍ਰਭੁ ਸਮਰਥੁ ॥
ਦ੍ਰਿੜੁ ਕਰਿ ਗਹਹੁ ਨਾਮੁ ਹਰਿ ਵਥੁ ॥
ਇਹੁ ਧਨੁ ਸੰਚਹੁ ਹੋਵਹੁ ਭਗਵੰਤ ॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕਾ ਨਿਰਮਲ ਮੰਤ ॥
ਏਕ ਆਸ ਰਾਖਹੁ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
ਸਰਬ ਰੋਗ ਨਾਨਕ ਮਿਟਿ ਜਾਹਿ ॥1॥
ਜਿਸੁ ਧਨ ਕਉ ਚਾਰਿ ਕੁੰਟ ਉਠਿ ਧਾਵਹਿ ॥
ਸੋ ਧਨੁ ਹਰਿ ਸੇਵਾ ਤੇ ਪਾਵਹਿ ॥
ਜਿਸੁ ਸੁਖ ਕਉ ਨਿਤ ਬਾਛਹਿ ਮੀਤ ॥
ਸੋ ਸੁਖੁ ਸਾਧੂ ਸੰਗਿ ਪਰੀਤਿ ॥
ਜਿਸੁ ਸੋਭਾ ਕਉ ਕਰਹਿ ਭਲੀ ਕਰਨੀ ॥
ਸਾ ਸੋਭਾ ਭਜੁ ਹਰਿ ਕੀ ਸਰਨੀ ॥
ਅਨਿਕ ਉਪਾਵੀ ਰੋਗੁ ਨ ਜਾਇ ॥
ਰੋਗੁ ਮਿਟੈ ਹਰਿ ਅਵਖਧੁ ਲਾਇ ॥
ਸਰਬ ਨਿਧਾਨ ਮਹਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਨਿਧਾਨੁ ॥
ਜਪਿ ਨਾਨਕ ਦਰਗਹਿ ਪਰਵਾਨੁ ॥2॥
ਮਨੁ ਪਰਬੋਧਹੁ ਹਰਿ ਕੈ ਨਾਇ ॥
ਦਹ ਦਿਸਿ ਧਾਵਤ ਆਵੈ ਠਾਇ ॥
ਤਾ ਕਉ ਬਿਘਨੁ ਨ ਲਾਗੈ ਕੋਇ ॥
ਜਾ ਕੈ ਰਿਦੈ ਬਸੈ ਹਰਿ ਸੋਇ ॥
ਕਲਿ ਤਾਤੀ ਠਾਂਢਾ ਹਰਿ ਨਾਉ ॥
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਸਦਾ ਸੁਖ ਪਾਉ ॥
ਭਉ ਬਿਨਸੈ ਪੂਰਨ ਹੋਇ ਆਸ ॥
ਭਗਤਿ ਭਾਇ ਆਤਮ ਪਰਗਾਸ ॥
ਤਿਤੁ ਘਰਿ ਜਾਇ ਬਸੈ ਅਬਿਨਾਸੀ ॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਕਾਟੀ ਜਮ ਫਾਸੀ ॥3॥
ਤਤੁ ਬੀਚਾਰੁ ਕਹੈ ਜਨੁ ਸਾਚਾ ॥
ਜਨਮਿ ਮਰੈ ਸੋ ਕਾਚੋ ਕਾਚਾ ॥
ਆਵਾ ਗਵਨੁ ਮਿਟੈ ਪ੍ਰਭ ਸੇਵ ॥
ਆਪੁ ਤਿਆਗਿ ਸਰਨਿ ਗੁਰਦੇਵ ॥
ਇਉ ਰਤਨ ਜਨਮ ਕਾ ਹੋਇ ਉਧਾਰੁ ॥
ਹਰਿ ਹਰਿ ਸਿਮਰਿ ਪ੍ਰਾਨ ਆਧਾਰੁ ॥
ਅਨਿਕ ਉਪਾਵ ਨ ਛੂਟਨਹਾਰੇ ॥
ਸਿੰਮ੍ਰਿਤਿ ਸਾਸਤ ਬੇਦ ਬੀਚਾਰੇ ॥
ਹਰਿ ਕੀ ਭਗਤਿ ਕਰਹੁ ਮਨੁ ਲਾਇ ॥
ਮਨਿ ਬੰਛਤ ਨਾਨਕ ਫਲ ਪਾਇ ॥4॥
ਸੰਗਿ ਨ ਚਾਲਸਿ ਤੇਰੈ ਧਨਾ ॥
ਤੂੰ ਕਿਆ ਲਪਟਾਵਹਿ ਮੂਰਖ ਮਨਾ ॥
ਸੁਤ ਮੀਤ ਕੁਟੰਬ ਅਰੁ ਬਨਿਤਾ ॥
ਇਨ ਤੇ ਕਹਹੁ ਤੁਮ ਕਵਨ ਸਨਾਥਾ ॥
ਰਾਜ ਰੰਗ ਮਾਇਆ ਬਿਸਥਾਰ ॥
ਇਨ ਤੇ ਕਹਹੁ ਕਵਨ ਛੁਟਕਾਰ ॥
ਅਸੁ ਹਸਤੀ ਰਥ ਅਸਵਾਰੀ ॥
ਝੂਠਾ ਡੰਫੁ ਝੂਠੁ ਪਾਸਾਰੀ ॥
ਜਿਨਿ ਦੀਏ ਤਿਸੁ ਬੁਝੈ ਨ ਬਿਗਾਨਾ ॥
ਨਾਮੁ ਬਿਸਾਰਿ ਨਾਨਕ ਪਛੁਤਾਨਾ ॥5॥
ਗੁਰ ਕੀ ਮਤਿ ਤੂੰ ਲੇਹਿ ਇਆਨੇ ॥
ਭਗਤਿ ਬਿਨਾ ਬਹੁ ਡੂਬੇ ਸਿਆਨੇ ॥
ਹਰਿ ਕੀ ਭਗਤਿ ਕਰਹੁ ਮਨ ਮੀਤ ॥
ਨਿਰਮਲ ਹੋਇ ਤੁਮ੍ਾਰੋ ਚੀਤ ॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਰਾਖਹੁ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
ਜਨਮ ਜਨਮ ਕੇ ਕਿਲਬਿਖ ਜਾਹਿ ॥
ਆਪਿ ਜਪਹੁ ਅਵਰਾ ਨਾਮੁ ਜਪਾਵਹੁ ॥
ਸੁਨਤ ਕਹਤ ਰਹਤ ਗਤਿ ਪਾਵਹੁ ॥
ਸਾਰ ਭੂਤ ਸਤਿ ਹਰਿ ਕੋ ਨਾਉ ॥
ਸਹਜਿ ਸੁਭਾਇ ਨਾਨਕ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥6॥
ਗੁਨ ਗਾਵਤ ਤੇਰੀ ਉਤਰਸਿ ਮੈਲੁ ॥
ਬਿਨਸਿ ਜਾਇ ਹਉਮੈ ਬਿਖੁ ਫੈਲੁ ॥
ਹੋਹਿ ਅਚਿੰਤੁ ਬਸੈ ਸੁਖ ਨਾਲਿ ॥
ਸਾਸਿ ਗ੍ਰਾਸਿ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਸਮਾਲਿ ॥
ਛਾਡਿ ਸਿਆਨਪ ਸਗਲੀ ਮਨਾ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਪਾਵਹਿ ਸਚੁ ਧਨਾ ॥
ਹਰਿ ਪੂੰਜੀ ਸੰਚਿ ਕਰਹੁ ਬਿਉਹਾਰੁ ॥
ਈਹਾ ਸੁਖੁ ਦਰਗਹ ਜੈਕਾਰੁ ॥
ਸਰਬ ਨਿਰੰਤਰਿ ਏਕੋ ਦੇਖੁ ॥
ਕਹੁ ਨਾਨਕ ਜਾ ਕੈ ਮਸਤਕਿ ਲੇਖੁ ॥7॥
ਏਕੋ ਜਪਿ ਏਕੋ ਸਾਲਾਹਿ ॥
ਏਕੁ ਸਿਮਰਿ ਏਕੋ ਮਨ ਆਹਿ ॥
ਏਕਸ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਉ ਅਨੰਤ ॥
ਮਨਿ ਤਨਿ ਜਾਪਿ ਏਕ ਭਗਵੰਤ ॥
ਏਕੋ ਏਕੁ ਏਕੁ ਹਰਿ ਆਪਿ ॥
ਪੂਰਨ ਪੂਰਿ ਰਹਿਓ ਪ੍ਰਭੁ ਬਿਆਪਿ ॥
ਅਨਿਕ ਬਿਸਥਾਰ ਏਕ ਤੇ ਭਏ ॥
ਏਕੁ ਅਰਾਧਿ ਪਰਾਛਤ ਗਏ ॥
ਮਨ ਤਨ ਅੰਤਰਿ ਏਕੁ ਪ੍ਰਭੁ ਰਾਤਾ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਇਕੁ ਜਾਤਾ ॥8॥19॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਫਿਰਤ ਫਿਰਤ ਪ੍ਰਭ ਆਇਆ ਪਰਿਆ ਤਉ ਸਰਨਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਕੀ ਪ੍ਰਭ ਬੇਨਤੀ ਅਪਨੀ ਭਗਤੀ ਲਾਇ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਜਾਚਕ ਜਨੁ ਜਾਚੈ ਪ੍ਰਭ ਦਾਨੁ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਦੇਵਹੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥
ਸਾਧ ਜਨਾ ਕੀ ਮਾਗਉ ਧੂਰਿ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ਮੇਰੀ ਸਰਧਾ ਪੂਰਿ ॥
ਸਦਾ ਸਦਾ ਪ੍ਰਭ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਵਉ ॥
ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਪ੍ਰਭ ਤੁਮਹਿ ਧਿਆਵਉ ॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਸਿਉ ਲਾਗੈ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥
ਭਗਤਿ ਕਰਉ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਨਿਤ ਨੀਤਿ ॥
ਏਕ ਓਟ ਏਕੋ ਆਧਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕੁ ਮਾਗੈ ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਭ ਸਾਰੁ ॥1॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ਮਹਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
ਹਰਿ ਰਸੁ ਪਾਵੈ ਬਿਰਲਾ ਕੋਇ ॥
ਜਿਨ ਚਾਖਿਆ ਸੇ ਜਨ ਤ੍ਰਿਪਤਾਨੇ ॥
ਪੂਰਨ ਪੁਰਖ ਨਹੀ ਡੋਲਾਨੇ ॥
ਸੁਭਰ ਭਰੇ ਪ੍ਰੇਮ ਰਸ ਰੰਗਿ ॥
ਉਪਜੈ ਚਾਉ ਸਾਧ ਕੈ ਸੰਗਿ ॥
ਪਰੇ ਸਰਨਿ ਆਨ ਸਭ ਤਿਆਗਿ ॥
ਅੰਤਰਿ ਪ੍ਰਗਾਸ ਅਨਦਿਨੁ ਲਿਵ ਲਾਗਿ ॥
ਬਡਭਾਗੀ ਜਪਿਆ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਨਾਮਿ ਰਤੇ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥2॥
ਸੇਵਕ ਕੀ ਮਨਸਾ ਪੂਰੀ ਭਈ ॥
ਸਤਿਗੁਰ ਤੇ ਨਿਰਮਲ ਮਤਿ ਲਈ ॥
ਜਨ ਕਉ ਪ੍ਰਭੁ ਹੋਇਓ ਦਇਆਲੁ ॥
ਸੇਵਕੁ ਕੀਨੋ ਸਦਾ ਨਿਹਾਲੁ ॥
ਬੰਧਨ ਕਾਟਿ ਮੁਕਤਿ ਜਨੁ ਭਇਆ ॥
ਜਨਮ ਮਰਨ ਦੂਖੁ ਭ੍ਰਮੁ ਗਇਆ ॥
ਇਛ ਪੁਨੀ ਸਰਧਾ ਸਭ ਪੂਰੀ ॥
ਰਵਿ ਰਹਿਆ ਸਦ ਸੰਗਿ ਹਜੂਰੀ ॥
ਜਿਸ ਕਾ ਸਾ ਤਿਨਿ ਲੀਆ ਮਿਲਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤੀ ਨਾਮਿ ਸਮਾਇ ॥3॥
ਸੋ ਕਿਉ ਬਿਸਰੈ ਜਿ ਘਾਲ ਨ ਭਾਨੈ ॥
ਸੋ ਕਿਉ ਬਿਸਰੈ ਜਿ ਕੀਆ ਜਾਨੈ ॥
ਸੋ ਕਿਉ ਬਿਸਰੈ ਜਿਨਿ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਦੀਆ ॥
ਸੋ ਕਿਉ ਬਿਸਰੈ ਜਿ ਜੀਵਨ ਜੀਆ ॥
ਸੋ ਕਿਉ ਬਿਸਰੈ ਜਿ ਅਗਨਿ ਮਹਿ ਰਾਖੈ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਕੋ ਬਿਰਲਾ ਲਾਖੈ ॥
ਸੋ ਕਿਉ ਬਿਸਰੈ ਜਿ ਬਿਖੁ ਤੇ ਕਾਢੈ ॥
ਜਨਮ ਜਨਮ ਕਾ ਟੂਟਾ ਗਾਢੈ ॥
ਗੁਰਿ ਪੂਰੈ ਤਤੁ ਇਹੈ ਬੁਝਾਇਆ ॥
ਪ੍ਰਭੁ ਅਪਨਾ ਨਾਨਕ ਜਨ ਧਿਆਇਆ ॥4॥
ਸਾਜਨ ਸੰਤ ਕਰਹੁ ਇਹੁ ਕਾਮੁ ॥
ਆਨ ਤਿਆਗਿ ਜਪਹੁ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ॥
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਸੁਖ ਪਾਵਹੁ ॥
ਆਪਿ ਜਪਹੁ ਅਵਰਹ ਨਾਮੁ ਜਪਾਵਹੁ ॥
ਭਗਤਿ ਭਾਇ ਤਰੀਐ ਸੰਸਾਰੁ ॥
ਬਿਨੁ ਭਗਤੀ ਤਨੁ ਹੋਸੀ ਛਾਰੁ ॥
ਸਰਬ ਕਲਿਆਣ ਸੂਖ ਨਿਧਿ ਨਾਮੁ ॥
ਬੂਡਤ ਜਾਤ ਪਾਏ ਬਿਸ੍ਰਾਮੁ ॥
ਸਗਲ ਦੂਖ ਕਾ ਹੋਵਤ ਨਾਸੁ ॥
ਨਾਨਕ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਗੁਨਤਾਸੁ ॥5॥
ਉਪਜੀ ਪ੍ਰੀਤਿ ਪ੍ਰੇਮ ਰਸੁ ਚਾਉ ॥
ਮਨ ਤਨ ਅੰਤਰਿ ਇਹੀ ਸੁਆਉ ॥
ਨੇਤ੍ਰਹੁ ਪੇਖਿ ਦਰਸੁ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
ਮਨੁ ਬਿਗਸੈ ਸਾਧ ਚਰਨ ਧੋਇ ॥
ਭਗਤ ਜਨਾ ਕੈ ਮਨਿ ਤਨਿ ਰੰਗੁ ॥
ਬਿਰਲਾ ਕੋਊ ਪਾਵੈ ਸੰਗੁ ॥
ਏਕ ਬਸਤੁ ਦੀਜੈ ਕਰਿ ਮਇਆ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਮੁ ਜਪਿ ਲਇਆ ॥
ਤਾ ਕੀ ਉਪਮਾ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਰਹਿਆ ਸਰਬ ਸਮਾਇ ॥6॥
ਪ੍ਰਭ ਬਖਸੰਦ ਦੀਨ ਦਇਆਲ ॥
ਭਗਤਿ ਵਛਲ ਸਦਾ ਕਿਰਪਾਲ ॥
ਅਨਾਥ ਨਾਥ ਗੋਬਿੰਦ ਗੁਪਾਲ ॥
ਸਰਬ ਘਟਾ ਕਰਤ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲ ॥
ਆਦਿ ਪੁਰਖ ਕਾਰਣ ਕਰਤਾਰ ॥
ਭਗਤ ਜਨਾ ਕੇ ਪ੍ਰਾਨ ਅਧਾਰ ॥
ਜੋ ਜੋ ਜਪੈ ਸੁ ਹੋਇ ਪੁਨੀਤ ॥
ਭਗਤਿ ਭਾਇ ਲਾਵੈ ਮਨ ਹੀਤ ॥
ਹਮ ਨਿਰਗੁਨੀਆਰ ਨੀਚ ਅਜਾਨ ॥
ਨਾਨਕ ਤੁਮਰੀ ਸਰਨਿ ਪੁਰਖ ਭਗਵਾਨ ॥7॥
ਸਰਬ ਬੈਕੁੰਠ ਮੁਕਤਿ ਮੋਖ ਪਾਏ ॥
ਏਕ ਨਿਮਖ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਏ ॥
ਅਨਿਕ ਰਾਜ ਭੋਗ ਬਡਿਆਈ ॥
ਹਰਿ ਕੇ ਨਾਮ ਕੀ ਕਥਾ ਮਨਿ ਭਾਈ ॥
ਬਹੁ ਭੋਜਨ ਕਾਪਰ ਸੰਗੀਤ ॥
ਰਸਨਾ ਜਪਤੀ ਹਰਿ ਹਰਿ ਨੀਤ ॥
ਭਲੀ ਸੁ ਕਰਨੀ ਸੋਭਾ ਧਨਵੰਤ ॥
ਹਿਰਦੈ ਬਸੇ ਪੂਰਨ ਗੁਰ ਮੰਤ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਪ੍ਰਭ ਦੇਹੁ ਨਿਵਾਸ ॥
ਸਰਬ ਸੂਖ ਨਾਨਕ ਪਰਗਾਸ ॥8॥20॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਸਰਗੁਨ ਨਿਰਗੁਨ ਨਿਰੰਕਾਰ ਸੁੰਨ ਸਮਾਧੀ ਆਪਿ ॥
ਆਪਨ ਕੀਆ ਨਾਨਕਾ ਆਪੇ ਹੀ ਫਿਰਿ ਜਾਪਿ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਜਬ ਅਕਾਰੁ ਇਹੁ ਕਛੁ ਨ ਦ੍ਰਿਸਟੇਤਾ ॥
ਪਾਪ ਪੁੰਨ ਤਬ ਕਹ ਤੇ ਹੋਤਾ ॥
ਜਬ ਧਾਰੀ ਆਪਨ ਸੁੰਨ ਸਮਾਧਿ ॥
ਤਬ ਬੈਰ ਬਿਰੋਧ ਕਿਸੁ ਸੰਗਿ ਕਮਾਤਿ ॥
ਜਬ ਇਸ ਕਾ ਬਰਨੁ ਚਿਹਨੁ ਨ ਜਾਪਤ ॥
ਤਬ ਹਰਖ ਸੋਗ ਕਹੁ ਕਿਸਹਿ ਬਿਆਪਤ ॥
ਜਬ ਆਪਨ ਆਪ ਆਪਿ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮ ॥
ਤਬ ਮੋਹ ਕਹਾ ਕਿਸੁ ਹੋਵਤ ਭਰਮ ॥
ਆਪਨ ਖੇਲੁ ਆਪਿ ਵਰਤੀਜਾ ॥
ਨਾਨਕ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ਨ ਦੂਜਾ ॥1॥
ਜਬ ਹੋਵਤ ਪ੍ਰਭ ਕੇਵਲ ਧਨੀ ॥
ਤਬ ਬੰਧ ਮੁਕਤਿ ਕਹੁ ਕਿਸ ਕਉ ਗਨੀ ॥
ਜਬ ਏਕਹਿ ਹਰਿ ਅਗਮ ਅਪਾਰ ॥
ਤਬ ਨਰਕ ਸੁਰਗ ਕਹੁ ਕਉਨ ਅਉਤਾਰ ॥
ਜਬ ਨਿਰਗੁਨ ਪ੍ਰਭ ਸਹਜ ਸੁਭਾਇ ॥
ਤਬ ਸਿਵ ਸਕਤਿ ਕਹਹੁ ਕਿਤੁ ਠਾਇ ॥
ਜਬ ਆਪਹਿ ਆਪਿ ਅਪਨੀ ਜੋਤਿ ਧਰੈ ॥
ਤਬ ਕਵਨ ਨਿਡਰੁ ਕਵਨ ਕਤ ਡਰੈ ॥
ਆਪਨ ਚਲਿਤ ਆਪਿ ਕਰਨੈਹਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਠਾਕੁਰ ਅਗਮ ਅਪਾਰ ॥2॥
ਅਬਿਨਾਸੀ ਸੁਖ ਆਪਨ ਆਸਨ ॥
ਤਹ ਜਨਮ ਮਰਨ ਕਹੁ ਕਹਾ ਬਿਨਾਸਨ ॥
ਜਬ ਪੂਰਨ ਕਰਤਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥
ਤਬ ਜਮ ਕੀ ਤ੍ਰਾਸ ਕਹਹੁ ਕਿਸੁ ਹੋਇ ॥
ਜਬ ਅਬਿਗਤ ਅਗੋਚਰ ਪ੍ਰਭ ਏਕਾ ॥
ਤਬ ਚਿਤ੍ਰ ਗੁਪਤ ਕਿਸੁ ਪੂਛਤ ਲੇਖਾ ॥
ਜਬ ਨਾਥ ਨਿਰੰਜਨ ਅਗੋਚਰ ਅਗਾਧੇ ॥
ਤਬ ਕਉਨ ਛੁਟੇ ਕਉਨ ਬੰਧਨ ਬਾਧੇ ॥
ਆਪਨ ਆਪ ਆਪ ਹੀ ਅਚਰਜਾ ॥
ਨਾਨਕ ਆਪਨ ਰੂਪ ਆਪ ਹੀ ਉਪਰਜਾ ॥3॥
ਜਹ ਨਿਰਮਲ ਪੁਰਖੁ ਪੁਰਖ ਪਤਿ ਹੋਤਾ ॥
ਤਹ ਬਿਨੁ ਮੈਲੁ ਕਹਹੁ ਕਿਆ ਧੋਤਾ ॥
ਜਹ ਨਿਰੰਜਨ ਨਿਰੰਕਾਰ ਨਿਰਬਾਨ ॥
ਤਹ ਕਉਨ ਕਉ ਮਾਨ ਕਉਨ ਅਭਿਮਾਨ ॥
ਜਹ ਸਰੂਪ ਕੇਵਲ ਜਗਦੀਸ ॥
ਤਹ ਛਲ ਛਿਦ੍ਰ ਲਗਤ ਕਹੁ ਕੀਸ ॥
ਜਹ ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੀ ਜੋਤਿ ਸੰਗਿ ਸਮਾਵੈ ॥
ਤਹ ਕਿਸਹਿ ਭੂਖ ਕਵਨੁ ਤ੍ਰਿਪਤਾਵੈ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨ ਕਰਨੈਹਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕ ਕਰਤੇ ਕਾ ਨਾਹਿ ਸੁਮਾਰੁ ॥4॥
ਜਬ ਅਪਨੀ ਸੋਭਾ ਆਪਨ ਸੰਗਿ ਬਨਾਈ ॥
ਤਬ ਕਵਨ ਮਾਇ ਬਾਪ ਮਿਤ੍ਰ ਸੁਤ ਭਾਈ ॥
ਜਹ ਸਰਬ ਕਲਾ ਆਪਹਿ ਪਰਬੀਨ ॥
ਤਹ ਬੇਦ ਕਤੇਬ ਕਹਾ ਕੋਊ ਚੀਨ ॥
ਜਬ ਆਪਨ ਆਪੁ ਆਪਿ ਉਰਿ ਧਾਰੈ ॥
ਤਉ ਸਗਨ ਅਪਸਗਨ ਕਹਾ ਬੀਚਾਰੈ ॥
ਜਹ ਆਪਨ ਊਚ ਆਪਨ ਆਪਿ ਨੇਰਾ ॥
ਤਹ ਕਉਨ ਠਾਕੁਰੁ ਕਉਨੁ ਕਹੀਐ ਚੇਰਾ ॥
ਬਿਸਮਨ ਬਿਸਮ ਰਹੇ ਬਿਸਮਾਦ ॥
ਨਾਨਕ ਅਪਨੀ ਗਤਿ ਜਾਨਹੁ ਆਪਿ ॥5॥
ਜਹ ਅਛਲ ਅਛੇਦ ਅਭੇਦ ਸਮਾਇਆ ॥
ਊਹਾ ਕਿਸਹਿ ਬਿਆਪਤ ਮਾਇਆ ॥
ਆਪਸ ਕਉ ਆਪਹਿ ਆਦੇਸੁ ॥
ਤਿਹੁ ਗੁਣ ਕਾ ਨਾਹੀ ਪਰਵੇਸੁ ॥
ਜਹ ਏਕਹਿ ਏਕ ਏਕ ਭਗਵੰਤਾ ॥
ਤਹ ਕਉਨੁ ਅਚਿੰਤੁ ਕਿਸੁ ਲਾਗੈ ਚਿੰਤਾ ॥
ਜਹ ਆਪਨ ਆਪੁ ਆਪਿ ਪਤੀਆਰਾ ॥
ਤਹ ਕਉਨੁ ਕਥੈ ਕਉਨੁ ਸੁਨਨੈਹਾਰਾ ॥
ਬਹੁ ਬੇਅੰਤ ਊਚ ਤੇ ਊਚਾ ॥
ਨਾਨਕ ਆਪਸ ਕਉ ਆਪਹਿ ਪਹੂਚਾ ॥6॥
ਜਹ ਆਪਿ ਰਚਿਓ ਪਰਪੰਚੁ ਅਕਾਰੁ ॥
ਤਿਹੁ ਗੁਣ ਮਹਿ ਕੀਨੋ ਬਿਸਥਾਰੁ ॥
ਪਾਪੁ ਪੁੰਨੁ ਤਹ ਭਈ ਕਹਾਵਤ ॥
ਕੋਊ ਨਰਕ ਕੋਊ ਸੁਰਗ ਬੰਛਾਵਤ ॥
ਆਲ ਜਾਲ ਮਾਇਆ ਜੰਜਾਲ ॥
ਹਉਮੈ ਮੋਹ ਭਰਮ ਭੈ ਭਾਰ ॥
ਦੂਖ ਸੂਖ ਮਾਨ ਅਪਮਾਨ ॥
ਅਨਿਕ ਪ੍ਰਕਾਰ ਕੀਓ ਬਖ੍ਹਾਨ ॥
ਆਪਨ ਖੇਲੁ ਆਪਿ ਕਰਿ ਦੇਖੈ ॥
ਖੇਲੁ ਸੰਕੋਚੈ ਤਉ ਨਾਨਕ ਏਕੈ ॥7॥
ਜਹ ਅਬਿਗਤੁ ਭਗਤੁ ਤਹ ਆਪਿ ॥
ਜਹ ਪਸਰੈ ਪਾਸਾਰੁ ਸੰਤ ਪਰਤਾਪਿ ॥
ਦੁਹੂ ਪਾਖ ਕਾ ਆਪਹਿ ਧਨੀ ॥
ਉਨ ਕੀ ਸੋਭਾ ਉਨਹੂ ਬਨੀ ॥
ਆਪਹਿ ਕਉਤਕ ਕਰੈ ਅਨਦ ਚੋਜ ॥
ਆਪਹਿ ਰਸ ਭੋਗਨ ਨਿਰਜੋਗ ॥
ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਆਪਨ ਨਾਇ ਲਾਵੈ ॥
ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਖੇਲ ਖਿਲਾਵੈ ॥
ਬੇਸੁਮਾਰ ਅਥਾਹ ਅਗਨਤ ਅਤੋਲੈ ॥
ਜਿਉ ਬੁਲਾਵਹੁ ਤਿਉ ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਬੋਲੈ ॥8॥21॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਜੀਅ ਜੰਤ ਕੇ ਠਾਕੁਰਾ ਆਪੇ ਵਰਤਣਹਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਏਕੋ ਪਸਰਿਆ ਦੂਜਾ ਕਹ ਦ੍ਰਿਸਟਾਰ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਆਪਿ ਕਥੈ ਆਪਿ ਸੁਨਨੈਹਾਰੁ ॥
ਆਪਹਿ ਏਕੁ ਆਪਿ ਬਿਸਥਾਰੁ ॥
ਜਾ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਉਪਾਏ ॥
ਆਪਨੈ ਭਾਣੈ ਲਏ ਸਮਾਏ ॥
ਤੁਮ ਤੇ ਭਿੰਨ ਨਹੀ ਕਿਛੁ ਹੋਇ ॥
ਆਪਨ ਸੂਤਿ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਪਰੋਇ ॥
ਜਾ ਕਉ ਪ੍ਰਭ ਜੀਉ ਆਪਿ ਬੁਝਾਏ ॥
ਸਚੁ ਨਾਮੁ ਸੋਈ ਜਨੁ ਪਾਏ ॥
ਸੋ ਸਮਦਰਸੀ ਤਤ ਕਾ ਬੇਤਾ ॥
ਨਾਨਕ ਸਗਲ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ਕਾ ਜੇਤਾ ॥1॥
ਜੀਅ ਜੰਤ੍ਰ ਸਭ ਤਾ ਕੈ ਹਾਥ ॥
ਦੀਨ ਦਇਆਲ ਅਨਾਥ ਕੋ ਨਾਥੁ ॥
ਜਿਸੁ ਰਾਖੈ ਤਿਸੁ ਕੋਇ ਨ ਮਾਰੈ ॥
ਸੋ ਮੂਆ ਜਿਸੁ ਮਨਹੁ ਬਿਸਾਰੈ ॥
ਤਿਸੁ ਤਜਿ ਅਵਰ ਕਹਾ ਕੋ ਜਾਇ ॥
ਸਭ ਸਿਰਿ ਏਕੁ ਨਿਰੰਜਨ ਰਾਇ ॥
ਜੀਅ ਕੀ ਜੁਗਤਿ ਜਾ ਕੈ ਸਭ ਹਾਥਿ ॥
ਅੰਤਰਿ ਬਾਹਰਿ ਜਾਨਹੁ ਸਾਥਿ ॥
ਗੁਨ ਨਿਧਾਨ ਬੇਅੰਤ ਅਪਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਦਾਸ ਸਦਾ ਬਲਿਹਾਰ ॥2॥
ਪੂਰਨ ਪੂਰਿ ਰਹੇ ਦਇਆਲ ॥
ਸਭ ਊਪਰਿ ਹੋਵਤ ਕਿਰਪਾਲ ॥
ਅਪਨੇ ਕਰਤਬ ਜਾਨੈ ਆਪਿ ॥
ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਰਹਿਓ ਬਿਆਪਿ ॥
ਪ੍ਰਤਿਪਾਲੈ ਜੀਅਨ ਬਹੁ ਭਾਤਿ ॥
ਜੋ ਜੋ ਰਚਿਓ ਸੁ ਤਿਸਹਿ ਧਿਆਤਿ ॥
ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥
ਭਗਤਿ ਕਰਹਿ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਣ ਗਾਇ ॥
ਮਨ ਅੰਤਰਿ ਬਿਸ੍ਵਾਸੁ ਕਰਿ ਮਾਨਿਆ ॥
ਕਰਨਹਾਰੁ ਨਾਨਕ ਇਕੁ ਜਾਨਿਆ ॥3॥
ਜਨੁ ਲਾਗਾ ਹਰਿ ਏਕੈ ਨਾਇ ॥
ਤਿਸ ਕੀ ਆਸ ਨ ਬਿਰਥੀ ਜਾਇ ॥
ਸੇਵਕ ਕਉ ਸੇਵਾ ਬਨਿ ਆਈ ॥
ਹੁਕਮੁ ਬੂਝਿ ਪਰਮ ਪਦੁ ਪਾਈ ॥
ਇਸ ਤੇ ਊਪਰਿ ਨਹੀ ਬੀਚਾਰੁ ॥
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਬਸਿਆ ਨਿਰੰਕਾਰੁ ॥
ਬੰਧਨ ਤੋਰਿ ਭਏ ਨਿਰਵੈਰ ॥
ਅਨਦਿਨੁ ਪੂਜਹਿ ਗੁਰ ਕੇ ਪੈਰ ॥
ਇਹ ਲੋਕ ਸੁਖੀਏ ਪਰਲੋਕ ਸੁਹੇਲੇ ॥
ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭਿ ਆਪਹਿ ਮੇਲੇ ॥4॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਮਿਲਿ ਕਰਹੁ ਅਨੰਦ ॥
ਗੁਨ ਗਾਵਹੁ ਪ੍ਰਭ ਪਰਮਾਨੰਦ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਤਤੁ ਕਰਹੁ ਬੀਚਾਰੁ ॥
ਦ੍ਰੁਲਭ ਦੇਹ ਕਾ ਕਰਹੁ ਉਧਾਰੁ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਬਚਨ ਹਰਿ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥
ਪ੍ਰਾਨ ਤਰਨ ਕਾ ਇਹੈ ਸੁਆਉ ॥
ਆਠ ਪਹਰ ਪ੍ਰਭ ਪੇਖਹੁ ਨੇਰਾ ॥
ਮਿਟੈ ਅਗਿਆਨੁ ਬਿਨਸੈ ਅੰਧੇਰਾ ॥
ਸੁਨਿ ਉਪਦੇਸੁ ਹਿਰਦੈ ਬਸਾਵਹੁ ॥
ਮਨ ਇਛੇ ਨਾਨਕ ਫਲ ਪਾਵਹੁ ॥5॥
ਹਲਤੁ ਪਲਤੁ ਦੁਇ ਲੇਹੁ ਸਵਾਰਿ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮੁ ਅੰਤਰਿ ਉਰਿ ਧਾਰਿ ॥
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਕੀ ਪੂਰੀ ਦੀਖਿਆ ॥
ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਬਸੈ ਤਿਸੁ ਸਾਚੁ ਪਰੀਖਿਆ ॥
ਮਨਿ ਤਨਿ ਨਾਮੁ ਜਪਹੁ ਲਿਵ ਲਾਇ ॥
ਦੂਖੁ ਦਰਦੁ ਮਨ ਤੇ ਭਉ ਜਾਇ ॥
ਸਚੁ ਵਾਪਾਰੁ ਕਰਹੁ ਵਾਪਾਰੀ ॥
ਦਰਗਹ ਨਿਬਹੈ ਖੇਪ ਤੁਮਾਰੀ ॥
ਏਕਾ ਟੇਕ ਰਖਹੁ ਮਨ ਮਾਹਿ ॥
ਨਾਨਕ ਬਹੁਰਿ ਨ ਆਵਹਿ ਜਾਹਿ ॥6॥
ਤਿਸ ਤੇ ਦੂਰਿ ਕਹਾ ਕੋ ਜਾਇ ॥
ਉਬਰੈ ਰਾਖਨਹਾਰੁ ਧਿਆਇ ॥
ਨਿਰਭਉ ਜਪੈ ਸਗਲ ਭਉ ਮਿਟੈ ॥
ਪ੍ਰਭ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਪ੍ਰਾਣੀ ਛੁਟੈ ॥
ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਭੁ ਰਾਖੈ ਤਿਸੁ ਨਾਹੀ ਦੂਖ ॥
ਨਾਮੁ ਜਪਤ ਮਨਿ ਹੋਵਤ ਸੂਖ ॥
ਚਿੰਤਾ ਜਾਇ ਮਿਟੈ ਅਹੰਕਾਰੁ ॥
ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਉ ਕੋਇ ਨ ਪਹੁਚਨਹਾਰੁ ॥
ਸਿਰ ਊਪਰਿ ਠਾਢਾ ਗੁਰੁ ਸੂਰਾ ॥
ਨਾਨਕ ਤਾ ਕੇ ਕਾਰਜ ਪੂਰਾ ॥7॥
ਮਤਿ ਪੂਰੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਜਾ ਕੀ ਦ੍ਰਿਸਟਿ ॥
ਦਰਸਨੁ ਪੇਖਤ ਉਧਰਤ ਸ੍ਰਿਸਟਿ ॥
ਚਰਨ ਕਮਲ ਜਾ ਕੇ ਅਨੂਪ ॥
ਸਫਲ ਦਰਸਨੁ ਸੁੰਦਰ ਹਰਿ ਰੂਪ ॥
ਧੰਨੁ ਸੇਵਾ ਸੇਵਕੁ ਪਰਵਾਨੁ ॥
ਅੰਤਰਜਾਮੀ ਪੁਰਖੁ ਪ੍ਰਧਾਨੁ ॥
ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਬਸੈ ਸੁ ਹੋਤ ਨਿਹਾਲੁ ॥
ਤਾ ਕੈ ਨਿਕਟਿ ਨ ਆਵਤ ਕਾਲੁ ॥
ਅਮਰ ਭਏ ਅਮਰਾ ਪਦੁ ਪਾਇਆ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਧਿਆਇਆ ॥8॥22॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਗਿਆਨ ਅੰਜਨੁ ਗੁਰਿ ਦੀਆ ਅਗਿਆਨ ਅੰਧੇਰ ਬਿਨਾਸੁ ॥
ਹਰਿ ਕਿਰਪਾ ਤੇ ਸੰਤ ਭੇਟਿਆ ਨਾਨਕ ਮਨਿ ਪਰਗਾਸੁ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਸੰਤਸੰਗਿ ਅੰਤਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਡੀਠਾ ॥
ਨਾਮੁ ਪ੍ਰਭੂ ਕਾ ਲਾਗਾ ਮੀਠਾ ॥
ਸਗਲ ਸਮਿਗ੍ਰੀ ਏਕਸੁ ਘਟ ਮਾਹਿ ॥
ਅਨਿਕ ਰੰਗ ਨਾਨਾ ਦ੍ਰਿਸਟਾਹਿ ॥
ਨਉ ਨਿਧਿ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਪ੍ਰਭ ਕਾ ਨਾਮੁ ॥
ਦੇਹੀ ਮਹਿ ਇਸ ਕਾ ਬਿਸ੍ਰਾਮੁ ॥
ਸੁੰਨ ਸਮਾਧਿ ਅਨਹਤ ਤਹ ਨਾਦ ॥
ਕਹਨੁ ਨ ਜਾਈ ਅਚਰਜ ਬਿਸਮਾਦ ॥
ਤਿਨਿ ਦੇਖਿਆ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਦਿਖਾਏ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਜਨ ਸੋਝੀ ਪਾਏ ॥1॥
ਸੋ ਅੰਤਰਿ ਸੋ ਬਾਹਰਿ ਅਨੰਤ ॥
ਘਟਿ ਘਟਿ ਬਿਆਪਿ ਰਹਿਆ ਭਗਵੰਤ ॥
ਧਰਨਿ ਮਾਹਿ ਆਕਾਸ ਪਇਆਲ ॥
ਸਰਬ ਲੋਕ ਪੂਰਨ ਪ੍ਰਤਿਪਾਲ ॥
ਬਨਿ ਤਿਨਿ ਪਰਬਤਿ ਹੈ ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ॥
ਜੈਸੀ ਆਗਿਆ ਤੈਸਾ ਕਰਮੁ ॥
ਪਉਣ ਪਾਣੀ ਬੈਸੰਤਰ ਮਾਹਿ ॥
ਚਾਰਿ ਕੁੰਟ ਦਹ ਦਿਸੇ ਸਮਾਹਿ ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਭਿੰਨ ਨਹੀ ਕੋ ਠਾਉ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਸੁਖੁ ਪਾਉ ॥2॥
ਬੇਦ ਪੁਰਾਨ ਸਿੰਮ੍ਰਿਤਿ ਮਹਿ ਦੇਖੁ ॥
ਸਸੀਅਰ ਸੂਰ ਨਖ੍ਹਤ੍ਰ ਮਹਿ ਏਕੁ ॥
ਬਾਣੀ ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਸਭੁ ਕੋ ਬੋਲੈ ॥
ਆਪਿ ਅਡੋਲੁ ਨ ਕਬਹੂ ਡੋਲੈ ॥
ਸਰਬ ਕਲਾ ਕਰਿ ਖੇਲੈ ਖੇਲ ॥
ਮੋਲਿ ਨ ਪਾਈਐ ਗੁਣਹ ਅਮੋਲ ॥
ਸਰਬ ਜੋਤਿ ਮਹਿ ਜਾ ਕੀ ਜੋਤਿ ॥
ਧਾਰਿ ਰਹਿਓ ਸੁਆਮੀ ਓਤਿ ਪੋਤਿ ॥
ਗੁਰ ਪਰਸਾਦਿ ਭਰਮ ਕਾ ਨਾਸੁ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਨ ਮਹਿ ਏਹੁ ਬਿਸਾਸੁ ॥3॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕਾ ਪੇਖਨੁ ਸਭੁ ਬ੍ਰਹਮ ॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕੈ ਹਿਰਦੈ ਸਭਿ ਧਰਮ ॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਸੁਨਹਿ ਸੁਭ ਬਚਨ ॥
ਸਰਬ ਬਿਆਪੀ ਰਾਮ ਸੰਗਿ ਰਚਨ ॥
ਜਿਨਿ ਜਾਤਾ ਤਿਸ ਕੀ ਇਹ ਰਹਤ ॥
ਸਤਿ ਬਚਨ ਸਾਧੂ ਸਭਿ ਕਹਤ ॥
ਜੋ ਜੋ ਹੋਇ ਸੋਈ ਸੁਖੁ ਮਾਨੈ ॥
ਕਰਨ ਕਰਾਵਨਹਾਰੁ ਪ੍ਰਭੁ ਜਾਨੈ ॥
ਅੰਤਰਿ ਬਸੇ ਬਾਹਰਿ ਭੀ ਓਹੀ ॥
ਨਾਨਕ ਦਰਸਨੁ ਦੇਖਿ ਸਭ ਮੋਹੀ ॥4॥
ਆਪਿ ਸਤਿ ਕੀਆ ਸਭੁ ਸਤਿ ॥
ਤਿਸੁ ਪ੍ਰਭ ਤੇ ਸਗਲੀ ਉਤਪਤਿ ॥
ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਕਰੇ ਬਿਸਥਾਰੁ ॥
ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਾ ਏਕੰਕਾਰੁ ॥
ਅਨਿਕ ਕਲਾ ਲਖੀ ਨਹ ਜਾਇ ॥
ਜਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਸੁ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥
ਕਵਨ ਨਿਕਟਿ ਕਵਨ ਕਹੀਐ ਦੂਰਿ ॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਆਪ ਭਰਪੂਰਿ ॥
ਅੰਤਰਗਤਿ ਜਿਸੁ ਆਪਿ ਜਨਾਏ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਜਨ ਆਪਿ ਬੁਝਾਏ ॥5॥
ਸਰਬ ਭੂਤ ਆਪਿ ਵਰਤਾਰਾ ॥
ਸਰਬ ਨੈਨ ਆਪਿ ਪੇਖਨਹਾਰਾ ॥
ਸਗਲ ਸਮਗ੍ਰੀ ਜਾ ਕਾ ਤਨਾ ॥
ਆਪਨ ਜਸੁ ਆਪ ਹੀ ਸੁਨਾ ॥
ਆਵਨ ਜਾਨੁ ਇਕੁ ਖੇਲੁ ਬਨਾਇਆ ॥
ਆਗਿਆਕਾਰੀ ਕੀਨੀ ਮਾਇਆ ॥
ਸਭ ਕੈ ਮਧਿ ਅਲਿਪਤੋ ਰਹੈ ॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਕਹਣਾ ਸੁ ਆਪੇ ਕਹੈ ॥
ਆਗਿਆ ਆਵੈ ਆਗਿਆ ਜਾਇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਾ ਭਾਵੈ ਤਾ ਲਏ ਸਮਾਇ ॥6॥
ਇਸ ਤੇ ਹੋਇ ਸੁ ਨਾਹੀ ਬੁਰਾ ॥
ਓਰੈ ਕਹਹੁ ਕਿਨੈ ਕਛੁ ਕਰਾ ॥
ਆਪਿ ਭਲਾ ਕਰਤੂਤਿ ਅਤਿ ਨੀਕੀ ॥
ਆਪੇ ਜਾਨੈ ਅਪਨੇ ਜੀ ਕੀ ॥
ਆਪਿ ਸਾਚੁ ਧਾਰੀ ਸਭ ਸਾਚੁ ॥
ਓਤਿ ਪੋਤਿ ਆਪਨ ਸੰਗਿ ਰਾਚੁ ॥
ਤਾ ਕੀ ਗਤਿ ਮਿਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ ॥
ਦੂਸਰ ਹੋਇ ਤ ਸੋਝੀ ਪਾਇ ॥
ਤਿਸ ਕਾ ਕੀਆ ਸਭੁ ਪਰਵਾਨੁ ॥
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਨਾਨਕ ਇਹੁ ਜਾਨੁ ॥7॥
ਜੋ ਜਾਨੈ ਤਿਸੁ ਸਦਾ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥
ਆਪਿ ਮਿਲਾਇ ਲਏ ਪ੍ਰਭੁ ਸੋਇ ॥
ਓਹੁ ਧਨਵੰਤੁ ਕੁਲਵੰਤੁ ਪਤਿਵੰਤੁ ॥
ਜੀਵਨ ਮੁਕਤਿ ਜਿਸੁ ਰਿਦੈ ਭਗਵੰਤੁ ॥
ਧੰਨੁ ਧੰਨੁ ਧੰਨੁ ਜਨੁ ਆਇਆ ॥
ਜਿਸੁ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ਸਭੁ ਜਗਤੁ ਤਰਾਇਆ ॥
ਜਨ ਆਵਨ ਕਾ ਇਹੈ ਸੁਆਉ ॥
ਜਨ ਕੈ ਸੰਗਿ ਚਿਤਿ ਆਵੈ ਨਾਉ ॥
ਆਪਿ ਮੁਕਤੁ ਮੁਕਤੁ ਕਰੈ ਸੰਸਾਰੁ ॥
ਨਾਨਕ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕਉ ਸਦਾ ਨਮਸਕਾਰੁ ॥8॥23॥
ਸਲੋਕੁ ॥
ਪੂਰਾ ਪ੍ਰਭੁ ਆਰਾਧਿਆ ਪੂਰਾ ਜਾ ਕਾ ਨਾਉ ॥
ਨਾਨਕ ਪੂਰਾ ਪਾਇਆ ਪੂਰੇ ਕੇ ਗੁਨ ਗਾਉ ॥1॥
ਅਸਟਪਦੀ ॥
ਪੂਰੇ ਗੁਰ ਕਾ ਸੁਨਿ ਉਪਦੇਸੁ ॥
ਪਾਰਬ੍ਰਹਮੁ ਨਿਕਟਿ ਕਰਿ ਪੇਖੁ ॥
ਸਾਸਿ ਸਾਸਿ ਸਿਮਰਹੁ ਗੋਬਿੰਦ ॥
ਮਨ ਅੰਤਰ ਕੀ ਉਤਰੈ ਚਿੰਦ ॥
ਆਸ ਅਨਿਤ ਤਿਆਗਹੁ ਤਰੰਗ ॥
ਸੰਤ ਜਨਾ ਕੀ ਧੂਰਿ ਮਨ ਮੰਗ ॥
ਆਪੁ ਛੋਡਿ ਬੇਨਤੀ ਕਰਹੁ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਅਗਨਿ ਸਾਗਰੁ ਤਰਹੁ ॥
ਹਰਿ ਧਨ ਕੇ ਭਰਿ ਲੇਹੁ ਭੰਡਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਨਮਸਕਾਰ ॥1॥
ਖੇਮ ਕੁਸਲ ਸਹਜ ਆਨੰਦ ॥
ਸਾਧਸੰਗਿ ਭਜੁ ਪਰਮਾਨੰਦ ॥
ਨਰਕ ਨਿਵਾਰਿ ਉਧਾਰਹੁ ਜੀਉ ॥
ਗੁਨ ਗੋਬਿੰਦ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਰਸੁ ਪੀਉ ॥
ਚਿਤਿ ਚਿਤਵਹੁ ਨਾਰਾਇਣ ਏਕ ॥
ਏਕ ਰੂਪ ਜਾ ਕੇ ਰੰਗ ਅਨੇਕ ॥
ਗੋਪਾਲ ਦਾਮੋਦਰ ਦੀਨ ਦਇਆਲ ॥
ਦੁਖ ਭੰਜਨ ਪੂਰਨ ਕਿਰਪਾਲ ॥
ਸਿਮਰਿ ਸਿਮਰਿ ਨਾਮੁ ਬਾਰੰ ਬਾਰ ॥
ਨਾਨਕ ਜੀਅ ਕਾ ਇਹੈ ਅਧਾਰ ॥2॥
ਉਤਮ ਸਲੋਕ ਸਾਧ ਕੇ ਬਚਨ ॥
ਅਮੁਲੀਕ ਲਾਲ ਏਹਿ ਰਤਨ ॥
ਸੁਨਤ ਕਮਾਵਤ ਹੋਤ ਉਧਾਰ ॥
ਆਪਿ ਤਰੈ ਲੋਕਹ ਨਿਸਤਾਰ ॥
ਸਫਲ ਜੀਵਨੁ ਸਫਲੁ ਤਾ ਕਾ ਸੰਗੁ ॥
ਜਾ ਕੈ ਮਨਿ ਲਾਗਾ ਹਰਿ ਰੰਗੁ ॥
ਜੈ ਜੈ ਸਬਦੁ ਅਨਾਹਦੁ ਵਾਜੈ ॥
ਸੁਨਿ ਸੁਨਿ ਅਨਦ ਕਰੇ ਪ੍ਰਭੁ ਗਾਜੈ ॥
ਪ੍ਰਗਟੇ ਗੁਪਾਲ ਮਹਾਂਤ ਕੈ ਮਾਥੇ ॥
ਨਾਨਕ ਉਧਰੇ ਤਿਨ ਕੈ ਸਾਥੇ ॥3॥
ਸਰਨਿ ਜੋਗੁ ਸੁਨਿ ਸਰਨੀ ਆਏ ॥
ਕਰਿ ਕਿਰਪਾ ਪ੍ਰਭ ਆਪ ਮਿਲਾਏ ॥
ਮਿਟਿ ਗਏ ਬੈਰ ਭਏ ਸਭ ਰੇਨ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨਾਮੁ ਸਾਧਸੰਗਿ ਲੈਨ ॥
ਸੁਪ੍ਰਸੰਨ ਭਏ ਗੁਰਦੇਵ ॥
ਪੂਰਨ ਹੋਈ ਸੇਵਕ ਕੀ ਸੇਵ ॥
ਆਲ ਜੰਜਾਲ ਬਿਕਾਰ ਤੇ ਰਹਤੇ ॥
ਰਾਮ ਨਾਮ ਸੁਨਿ ਰਸਨਾ ਕਹਤੇ ॥
ਕਰਿ ਪ੍ਰਸਾਦੁ ਦਇਆ ਪ੍ਰਭਿ ਧਾਰੀ ॥
ਨਾਨਕ ਨਿਬਹੀ ਖੇਪ ਹਮਾਰੀ ॥4॥
ਪ੍ਰਭ ਕੀ ਉਸਤਤਿ ਕਰਹੁ ਸੰਤ ਮੀਤ ॥
ਸਾਵਧਾਨ ਏਕਾਗਰ ਚੀਤ ॥
ਸੁਖਮਨੀ ਸਹਜ ਗੋਬਿੰਦ ਗੁਨ ਨਾਮ ॥
ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਬਸੈ ਸੁ ਹੋਤ ਨਿਧਾਨ ॥
ਸਰਬ ਇਛਾ ਤਾ ਕੀ ਪੂਰਨ ਹੋਇ ॥
ਪ੍ਰਧਾਨ ਪੁਰਖੁ ਪ੍ਰਗਟੁ ਸਭ ਲੋਇ ॥
ਸਭ ਤੇ ਊਚ ਪਾਏ ਅਸਥਾਨੁ ॥
ਬਹੁਰਿ ਨ ਹੋਵੈ ਆਵਨ ਜਾਨੁ ॥
ਹਰਿ ਧਨੁ ਖਾਟਿ ਚਲੈ ਜਨੁ ਸੋਇ ॥
ਨਾਨਕ ਜਿਸਹਿ ਪਰਾਪਤਿ ਹੋਇ ॥5॥
ਖੇਮ ਸਾਂਤਿ ਰਿਧਿ ਨਵ ਨਿਧਿ ॥
ਬੁਧਿ ਗਿਆਨੁ ਸਰਬ ਤਹ ਸਿਧਿ ॥
ਬਿਦਿਆ ਤਪੁ ਜੋਗੁ ਪ੍ਰਭ ਧਿਆਨੁ ॥
ਗਿਆਨੁ ਸ੍ਰੇਸਟ ਊਤਮ ਇਸਨਾਨੁ ॥
ਚਾਰਿ ਪਦਾਰਥ ਕਮਲ ਪ੍ਰਗਾਸ ॥
ਸਭ ਕੈ ਮਧਿ ਸਗਲ ਤੇ ਉਦਾਸ ॥
ਸੁੰਦਰੁ ਚਤੁਰੁ ਤਤ ਕਾ ਬੇਤਾ ॥
ਸਮਦਰਸੀ ਏਕ ਦ੍ਰਿਸਟੇਤਾ ॥
ਇਹ ਫਲ ਤਿਸੁ ਜਨ ਕੈ ਮੁਖਿ ਭਨੇ ॥
ਗੁਰ ਨਾਨਕ ਨਾਮ ਬਚਨ ਮਨਿ ਸੁਨੇ ॥6॥
ਇਹੁ ਨਿਧਾਨੁ ਜਪੈ ਮਨਿ ਕੋਇ ॥
ਸਭ ਜੁਗ ਮਹਿ ਤਾ ਕੀ ਗਤਿ ਹੋਇ ॥
ਗੁਣ ਗੋਬਿੰਦ ਨਾਮ ਧੁਨਿ ਬਾਣੀ ॥
ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਸਾਸਤ੍ਰ ਬੇਦ ਬਖਾਣੀ ॥
ਸਗਲ ਮਤਾਂਤ ਕੇਵਲ ਹਰਿ ਨਾਮ ॥
ਗੋਬਿੰਦ ਭਗਤ ਕੈ ਮਨਿ ਬਿਸ੍ਰਾਮ ॥
ਕੋਟਿ ਅਪ੍ਰਾਧ ਸਾਧਸੰਗਿ ਮਿਟੈ ॥
ਸੰਤ ਕ੍ਰਿਪਾ ਤੇ ਜਮ ਤੇ ਛੁਟੈ ॥
ਜਾ ਕੈ ਮਸਤਕਿ ਕਰਮ ਪ੍ਰਭਿ ਪਾਏ ॥
ਸਾਧ ਸਰਣਿ ਨਾਨਕ ਤੇ ਆਏ ॥7॥
ਜਿਸੁ ਮਨਿ ਬਸੈ ਸੁਨੈ ਲਾਇ ਪ੍ਰੀਤਿ ॥
ਤਿਸੁ ਜਨ ਆਵੈ ਹਰਿ ਪ੍ਰਭੁ ਚੀਤਿ ॥
ਜਨਮ ਮਰਨ ਤਾ ਕਾ ਦੂਖੁ ਨਿਵਾਰੈ ॥
ਦੁਲਭ ਦੇਹ ਤਤਕਾਲ ਉਧਾਰੈ ॥
ਨਿਰਮਲ ਸੋਭਾ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਤਾ ਕੀ ਬਾਨੀ ॥
ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਮਨ ਮਾਹਿ ਸਮਾਨੀ ॥
ਦੂਖ ਰੋਗ ਬਿਨਸੇ ਭੈ ਭਰਮ ॥
ਸਾਧ ਨਾਮ ਨਿਰਮਲ ਤਾ ਕੇ ਕਰਮ ॥
ਸਭ ਤੇ ਊਚ ਤਾ ਕੀ ਸੋਭਾ ਬਨੀ ॥
ਨਾਨਕ ਇਹ ਗੁਣਿ ਨਾਮੁ ਸੁਖਮਨੀ ॥8॥24॥
Sukhmani Sahib Path in English
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jap jap jeevai naanak har naa-o. ||4||
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